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________________ १२४ दुविधा पत्तधर पधाण बहुधा बहुविध भूसणधारी मधु मधुर मम्मवेधणी वधू वाधि विधीओ विरोधी विविध संदधे समाधि साधारण साधु प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण सभाव सुभ सोभतर सोभति सोभाग Jain Education International -भू-=-भ् अणुभासक अभि- (तीसबार) असुभ णिप्पभ दुल्लभ भट्ठ पभव पभा पभासति लभति लाभ लोभ वण्णाभ विभाग विभावण विभूसण संणिभ -त्-=-दू भविदव्वं For Private & Personal Use Only -थ्-=-धू अधासच्चं ऊपर के इन शब्द-प्रयोगों से प्रतीत होता है कि अर्धमागधी की शब्दावली अधिकतर पालि के समान ही थी जैसा कि प्रो. हर्मन योकोबी, प्रो. ए. म. घाटगे, मुनि पुण्यविजयजी एवं पं. बेचरदासजी का मन्तव्य रहा है । कालान्तर में उस पर महाराष्ट्री का बहुत प्रभाव पड़ा है क्योंकि इस प्रकार के शब्द-प्रयोग, जिनमें मध्यवर्ती व्यंजन यथावत् हो, महाराष्ट्री प्राकृत के विशिष्ट ग्रंथ गाथासप्तशती, सेतुबन्धम्, पउमचरियं वज्जलग्गं इत्यादि में मिलेंगे क्या ? प्रो. हर्मन योकोबी द्वारा संपादित आचारांग ( प्रथम श्रुत-स्कन्ध) में भी इसी प्रकार की शब्दावली भी मिलती है परंतु प्रो. वाल्थर शुबिंग द्वारा संपादित आचारांग (प्रथम श्रुत-स्कन्ध) की शब्दावली तो पूर्णतः महाराष्ट्री में बदल दी गयी है । इस दृष्टि से महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित आचारांग जधा तव रधचक्क सव्वधा सुणेध www.jainelibrary.org
SR No.001385
Book TitlePrakrit Bhasha ka Tulnatmak Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2001
Total Pages144
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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