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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
खत्तियकुलम्मि जम्मो जिणधम्मे अविचला य तुह भत्ती । निरवज्जा रज्जसिरी पुव्वज्जियधम्मफलमेयं ॥८९१॥ एयवयणावसाणे विजयवई सिरि निहित्तकरकमला । भणइ गुरुं सविसेसं तुम्हाएसं करिस्सामि ।।८९२।। परमेगमजाणंती पुच्छामि अहं कहेह मह एयं । जइ पुट्विं कयधम्मा कहं न मे पुत्तसंपत्ती ? ||८९३॥ मोत्तुं जिणदसण-पूयणं च गुरुचरणकमलसेवं च । सुयविरहियाए अन्नं सव्वं पि दुहावहं मज्झ ॥८९४।। चित्तसमाहाणे सइ रज्जाइपरिग्गहो सुहं जणइ । उम्मत्तयरज्जं पिव तमन्नहा कुणइ जणहासं ||८९५।। असरिसजणेण दिन्नं दुव्वयणं पि हु तहा न मे तवइ । निरवच्चयाए जणिओ वंझासदो जहा निसुओ ||८९६।। अह भणइ गुरू वच्छे ! दुक्खं सवियप्पकप्पियं तुज्झ । न उणो परमत्थवियारणासु निरवच्चया दुक्खं ।।८९७।। जाव न तुह होइ सुओ पसरइ मोहो न ताव हिययम्मि । जायम्मि सुए मोहा ममत्ति भावो परे(रो?) होइ ।।८९८॥ को तुह परमत्थगुणो उप्पज्जइ तेण किर प्पसूएण । मोत्तुं बाहिरववहार-संगयं लोयवामोहं ।।८९९।। सहलिज्जइ सुयजम्मो एत्तियमेत्तेण जं तओ एत्थ । अणवच्छिन्नं पसरइ पुत्त-पपुत्ताइसंताणं ।।९००। अह भणइ पुणो देवी भयवं ! इह मिच्छ(च्छा)दिट्ठिणो केवि। परलोयसुहो पुत्तो कहमेवं नाह ! पडिवन्ना ? ॥९०१।।
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