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________________ . ८० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ एक्केण चिय सुगुणेण लहइ मलिणो वि उत्तमासंगं । पेच्छह जिणतणुफंसो कालायरुणा कहं पत्तो ? ||८५८।। इय एवमाइ बहुविह-महरिहपूयाइ पूइऊण जिणं । पथुणइ हरिसुग्गयपुलयपडलपरिकरियसव्वंगा ।।८५९।। "तुह नाह ! पयपणामु-लसंतसंतोससुहियहिययाए । मह परिणयं जमेसा तुह सेवा सयलसुहहेऊ !।८६०॥ न पडंति ते दुरुत्तर-संसारमहोयहिम्मि बहुदुक्खे । संपडइ जाणवत्तं व जाण पयपंकयं तुज्झ ।।८६१।। तुज्झ नमोत्ति पलत्ते पलाइ दूरेण देव ! दुरियभरो । जवियम्मि सिद्धमंते भूयवियारा न नासंति ? ।।८६२।। इय तित्थेसर ! नीसेस-भुयणपरमत्थबंधव ! नमो ते । मोत्तूण तुमं जम्म-तरेवि मा होउ अन्नमई" ।।८६३।। एवं बहुप्पयारं थोऊण जिणं पराए भत्तीए । . धरणिनिहिउत्तिमंगा पुणो पुणो पणमइ जिणस्स ।।८६४॥ पडिहारदरिसियपहा विविहसहापरिगयस्स सूरिस्स । निम्मलमइस्स पासं गंतूणं पणमइ पहिट्ठा ।।८६५।। गुरुणावि सायरेणं आसासिय धम्मलाहदाणेण । 'उवविससु'त्ति सपणयं भणिया उवविसइ चरणंते ॥८६६।। अह भणइ गुरू गंभीर-महुरनिघो(ग्घो)सपूरियदियंतो । उद्दिसिउं विजयवई ललियपयं एरिसं वयणं ।।८६७।। “धन्ना सि तुमं वच्छे ! जा सम्मं जिणवरिंदपयकमलं । अवहत्थियन्नकज्जा पूएसि पराए भत्तीए ।।८६८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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