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________________ पोथी में दो-चार ठेकाने त्रुटित पत्रवाले आये, वहां पाठ पूर्ति इसी प्रति के आधार पर का गई है। उक्त दोनों प्रतियों का उपयोग करने की सम्मति देने के लिए उपर्युक्त दोनों संस्थाओं के कार्यवाहकों के प्रति मैं कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। ग्रन्थ की प्रतिलिपि करने में मुनि कल्याणकीर्तिविजयजीने काफी सहायता दी है। इस कथा का संक्षिप्त हिन्दी सार व परिशिष्ट दूसरे खण्ड में दिये हैं । जिज्ञासुओं को वह देख लेनेका अनुरोध है । ग्रन्थ का सम्पादन गुरुकृपा से यथामति किया गया है | कहीं कोई क्षति भी रह गई हो, इसका पूरा सम्भव है । मुद्रणमें भी दृष्टिदोष से या प्रेसदोष से कुछ क्षतियां हो गयी है । जितनी क्षतियां, छप जाने के बाद नजर में आई, उसका एक शुद्धिपत्र ग्रन्थ के अन्त में दिया जाता है । कृपया उसका उपयोग करें। इस ग्रन्थ का प्रकाशन सुविख्यात संस्था 'प्राकृत ग्रन्थ परिषद्' के नाम से हो ऐसी मेरी भावना थी। इसमें अनुमति देने के लिए मैं उक्त संस्था के पदाधिकारी गण का व विशेषत: डॉ. हरिवल्लभ भायाणी का ऋणी Dhoo क्रिष्ना प्रिन्टरी, अमदावाद के श्री हरजीभाई पटेल को उत्तम मुद्रण कर देने के लिए धन्यवाद । भाद्रपद शुदि ११, सं. २०५६ -विजयशीलचन्द्रसूरि भावनगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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