SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सुविसुद्धसीलसाला अविकलकल्लाणकुलहरमुयारं । अखी (क्खी) णखमाखेत्तं आगारं गुरुगुणगणस्स ॥ ७१७|| उवसमविलासवसही चडुलिंदियचोरबंधणहडिव्व । करुणापवाहवहणी मणमक्कडबंधरज्जुव्व ॥ ७१८ ।। आगंतूण य पंगण-पएसभायम्मि जिणवरगिहस्स । पक्खालइ चलणजुयं जयणाए कमंडलुजलेण ॥७१९ ॥ अह जिणहरदारठियं तं दठ्ठे ताओ दोवि बालाओ । ओसरिउ (उं) तुरयपयं गब्भहरं अह पविट्ठाओ ||७२०|| तो भणिऊण निसीहिं पविसर अभिं ( ब्भि) तरं ससंभंता । कयपंचगप ( प्प) णामा थुणइ जिणं परमभत्तीए ||७२१|| "मोहान्धकारवस (श) वर्त्तिनि जीवलोके दूरप्रलीनपरमार्थपथप्रचारे । तत्त्वप्रकाशनतया परमोपकारी चन्द्रप्रभो जयति चन्द्रमरीचिगौरः ॥ ७२२॥ यस्मिन्नुदेति हृदि कल्पितमात्र एव विज्ञानवारिधिरधीनसमस्तसम्पत् । तत्र प्रसा (शा) न्तमुनिमानसराजहंसे चन्द्रप्रभे प्रतिदिनं मम भक्तिरस्तु ” ॥ ७२३॥ जा थोऊण नियच्छइ ता पेच्छइ पिट्ठओ ससंभंता । सविणयपणामकरणत्थ - मुज्जयं सा महीनाहं ॥ ७२४|| नरवय (इ) णा वि ससंभम-पणामवसलुलियकेसपासेणं । बहुभत्तिभरनिरंतर - पुलइयदेहेण पणिवइया ॥ ७२५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ६७ www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy