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________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ इह का वि भूमिलुलियं केसकलावं दिढं निबंधे । विहडंतभूसणाई जहंगठाणे ठवइ अन्ना ||८०५७ ॥ संबाहइ का वि सिरिं अन्ना हिययं च का वि बाहुलयं । अन्ना उण चरणतलं सही सहत्थेहिं संभंता ||८०५८ । अन्ना वि पुणो सीयलजलपूरियकणयकलसमुक्खिवइ । सहस त्ति तेण सिंचइ सव्वंगं चेयणनिमित्तं ||८०५९॥ तो कह वि महाकट्टेण विविहसिसिरोवयारकिरियाहिं । संपत्तचेयणा सा सहीहिं पुणं भणिउमाढत्ता ||८०६० ।। 'किं भुयणसुंदरि ! तुहं बाहइ ? साहेसु अम्ह भीयाण । एयं नियसहिवग्गं आसाससु वयणदाणेण' ||८०६१ ।। तो लद्धचेयणा सा ईसीसुमि (म्मि)ल्ललोयणविलासा । उच्छाइया खणेणं हरिविकुमविरहदुक्खेहिं ॥ ८०६२।। नियकरयलेण ताडइ निडालवट्टं विमुक्कुनीसासा । दैयं (वं) पि उवालंभइ पुण विलवइ सकरुणं बाला ||८०६३ ।। 'हा हा ! हयास ! रे देव्व ! कह णु अइविरसमेरिसं विहियं ? | छोढूण निहिं हत्थे पुणो वि उद्दालिया मज्झ ? ||८०६४ || हरिविकुम ! अच्छरियं जे पायं दुज्जणाण विन हुंति । ते कह तुह सुयणस्स वि विणिग्गया निठुरालावा ? ||८०६५ ॥ जाणे विहि ! तुह फुसिओ असरिससंजोयसंभवो अजसो । नवर पियविहडणेणं संपइ अहिओ व्व सो जाओ ||८०६६ ।। जइ नाम अहमणिट्ठा ता किं पिय ! रक्खिआ गइंदाओ ? । न मुयाए जओ हुतं तुम्ह अवन्नाकयं दुक्खं ॥८०६७।। Jain Education International ७३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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