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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ अह ण्हाओ सुइभूओ निम्मलदेवंगवत्थपरिहाणो । सो मलयमेहजक्खो वत्थंचलपिहियमुहकमलो ॥७९३६।। बहुजक्खसयसमेओ अहिमंतियकलसकलियकरकमलो । खलहलरवेण ण्हावइ ससिप्पहं परमभत्तीए ।।७९३७।। कलसट्ठसएहिं तओ एहविऊण विलेवणं तओ कुणइ । भूसइ विभूसणेहिं पुण पूयइ पुफ(प्फ)मालाहिं ।।७९३८।। तो कालायरु-कप्पूरसुरहिधूयं च सो समुक्खिवइ । आरत्तियाइ सव्वं कायव्वं कुणइ देवस्स ।।७९३९।। तो. निव्वत्तियवित्थरपूयाकम्मो य वंदणापुव्वं । संथुणइ मलयमेहो पसन्नललिएहिं थोत्तेहिं ।।७९४०।। कयकिच्चो होऊणं संभासइ सायरेहिं वयणेहिं । कुमरं तस्स समीवे उवविट्ठो भणिउमाढत्तो ||७९४१ ।। 'तुह सागयं नरेसर ! जेण अबाहेण सयलभुयणमि । जायइ कुसलं तुह तंमि कुमर ! कुसलं सरीरंमि ? ||७९४२।। तुह परिणामसुहत्थं हरियस्सेगागिणो मए एत्थ । उव्वहइ न ते हिययं मालिन्नं अम्ह विसयंमि ? ||७९४३ ।। पीडइ न तुज्झ हिययं गरुयपहावेण रक्खियस्सेह । दूरविसंठुलसेन्नस्स संभवा का वि अवसेरी.?' ||७९४४।। इय एवमाइ भणिरं जक्खं कुमरो पसन्नमुहकमलो । पडिभणइ पगब्भगिरो सुसिलिटुं वयणविन्नासं ॥७९४५।। 'जिणनाहदसणेणं उत्तमपुरिसस्स चरियसवणेण । सुस्सावयसंगेण य हवंति कुसलाइं सव्वत्थ ॥७९४६।।
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