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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
ववगयसीलाहरणा आहरणसहस्सभूसियंगी वि । गावि व्व असुइगिद्धा न सोहए लोयमझंमि ॥७७७१।। इय तुम्ह देवया इव वंदा पुज्जा य सव्वया एसा । जम्हा गुणबहुमाणो होइ निमित्तं गुरुगुणाण' ॥७७७२।। इयमाइ जंपिऊणं चंदसिरिं परियणस्स अप्पेउं । . भुंजइ जक्खो भोए बहुजक्खिणिविंदपरियरिओ ||७७७३।। देवी चंदसिरी वि य अजत्तसंपज्जमाणसयलत्था । चिट्ठइ परमसुहेणं निए व गेहे विगयसोया ॥७७७४।। जह जह वड्डइ गब्भो तह तह गब्भाणुभावरमणीया । आणंदनिम्मियं पिव मन्नइ सयलं पि तेलोयं ।।७७७५।। चंदसिरिगब्भमाहप्पसंभवा मलयमेहभवणंमि । संजाया सुहभावा निमित्तसउणा य सुपसत्था ।।७७७६।। अनिमित्तो च्चिय वड्डइ आणंदो जक्ख-जक्खिणिजणस्स । रिउणो वि हु पडिवन्ना भिच्चत्तणं (भिच्चत्तं) मलयमेहस्स ।।७७७७॥ जं किंचि य मणेण चिंतई असज्झमवि तं पि सिज्झए कज्जं । जाओ य अयंड च्चिय पुरंदरस्साऽवि सुपयंडो. ॥७७७८।। इय एवमाइ बहुविहसुहाणुहावत्तणेण रमणीया । संजाया सुहभावा चंदसिरीगब्भभावेण ॥७७७९॥ तो भणइ जक्खराया 'तुह पुत्त ! पसत्थगब्भमाहप्पा । एसो मह अब्भुदओ पुट्विं न कया वि जो जाओ ।।७७८०।। ता किं पि तुज्झ उयरे सुहाणुमाणेण पुत्त ! तक्केमि । अच्चब्भुयप्पहावं संभूयं किं पि गुरुसत्तं ।।७७८१ ।।
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