________________
सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
६९७ आयरियठावणे(ण)-समयेव(सममेव?) उप्पन्नओहिवरनाणो । दुक्करतवप्पहावाओ(उ) गयणगामी य संजाओ ।।७६३८।। इय वीरसेणसूरी विहरइ वसुहायलं भुयणसूरो । अवणंतो लोयाणं दुरंतगुरुमोहतिमिरोहं ।।७६३९।। राया वि अमरसेणो सेणासंमद्ददलियमहिवीढो । सम्मं पसाहियासेसविसमसामंतनरनाहो ॥७६४०॥ उग्गयगरुयपयावो पत्तमहारायनामधेयो य ।। पालइ वसुहं नय-विक्कमेहिं अक्तमहिवीढो ।।७६४१।। देवी वि य चंदसिरी पइदियहपवढमाणगुरुगब्भा । दइयं अविम्हरंती घरवासं मुणइ गोत्तिं व ।।७६४२।। दुसहपियविरहहुयवहपुलट्ठसव्वंगजायदाहाए । सो नत्थि उवाओ तीए को वि जह जायए सोक्खं ।।७६४३।। संधुक्कइ व(व्व) सिसिरानिलेण जलइ व्व चंदणाईहिं । उवसमहेऊहि वि अहियमेव विरहानलो तीए ।।७६४४ ।। सुविवेइणो वि मन्ने दुक्खं आवडइ किं पि तं गरुयं । छाइज्जइ सो वि हु जेण मेहपडलेण सूरो व्व ।।७६४५।। जइ छाइओ वि तह वि हु उवयारी आवयाए सुविवेओ । घणसंछन्नो वि रवी न देइ निसि-तिमिरअववा(या)सं ।।७६४६।। इय सा बहुदुक्खा वि हु गुरुवयणविसेसजायपच्चासा । संधीरइ अप्पाणं जिणवयणविभावणगुणेण ।।७६४७।। अह अन्नदिणे देवी पवड्डमाणाइरेगसंतावा । निसि महरिहसेज्जाए दंतवलभीए ओल्लरइ ॥७६४८।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org