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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
६४९ ता भयवं! मह सरिसो पुत्तो मा होज्ज को वि संसारे । जो दुक्खकारणं चिय उप्पन्नो जणणि-जणयाण ||७११४।। सूरसुओ वि हु मंदो तं पीडइ जत्थ निवसइ खणं पि । कहिओ च्चिय जाणिज्जइ सणिच्छरो वीरसेणो य ।।७११५।। ताव च्चिय वड्डइ वंससंतई महिहराण निरवाया । जाव न मज्झ समाई जायंति जए दुबीयाई ||७११६।। जायंमि जेहिं जायइ नियकुलवुड्डी जयंमि जसकित्ती । जणणि-जणयाण तोसो ते पुत्ता न उण मह सरिसा ||७११७।। सल्लइ न तहा भयवं! मह पिउणो नट्ठसमरसल्लोहो । जह वैरिपरिभवो मह दुपुत्तविरहो य अच्चत्थं ।।७११८।। अहिमाणमहोयहिणो मह पिउणो चक्कवट्टिरज्जं पि । न सुहायइ माणब्भंसजायबहुदुक्खभारस्स ।।७११९।। तो ताई कह वि जइ एत्थ एंति ता ताण मज्झ वि पमोओ । जायइ एवं चिय मज्झ अत्थि आलंबणं भयवं ॥७१२०।। न उणो मह तुम्ह पसायपत्तसुविवेयमुणियतत्तस्स । रज्जसिरी-विसयपसंगसंभवे अत्थि वामोहो' ||७१२१।। तो भयवया वि भणियं ‘अहासुहं मा करेह पडिबंधं । एसो वि परमधम्मो जं माइ-पिऊण हियकरणं ।।७१२२।। एवं चिय कीरंतं ताण वि परिणामसुंदरं होही । सव्वत्थ तुह अविग्घं संपज्जउ धम्मकज्जेसु' ॥७१२३।। इय पभणंता अकलंक-निम्मला पभणिया नरिंदेण । 'नियदसणेण भयवं! कायव्वो पुणरवि पसाओ' ||७१२४।।
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