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सम्पादकीय
नाइल्ल (नागेन्द्र) कुलीन तप-संयम-शीलरत श्री समुद्रसूरिके स्वहस्तदीक्षित शिष्य आचार्य श्री विजयसिंहसूरि द्वारा विरचित, प्राकृत भाषामय एवं पद्यात्मक, 'श्री भुवनसुन्दरी कथा' का सम्पादन व प्रकाशन करते हुए अत्यधिक आनन्द का अनुभव हो रहा है।
इस ग्रंथ की रचना का वर्ष ग्रन्थ में कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है । फिर भी विद्वानोंने बृहट्टिप्पनिका के आधार पर इसका रचना-वर्ष सं. ९७५ होने का निर्देश दिया है । डॉ. मधुसूदन ढांकी के अनुसार यह वर्ष विक्रम संवत् का न होकर शक संवत् हो यह अधिक संभवित है । क्यों कि कर्ताने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में 'धनपाल'. कवि का स्मरण (गाथा ११) किया है, और धनपाल का सत्ता समय वि.सं. की १०वीं-११वीं शती माना गया है । अत: धनपाल के बाद में ही यह ग्रन्थकार हुए होने चाहिए, और अतएव ९७५ को विक्रम वर्ष न मान कर शक वर्ष (ई. १०५३) मान लिया जाय, तो सभी सुसंगत हो सकता है।
इस ग्रन्थ का रचना-स्थल सोमेश्वरनगर (प्रभास पत्तन) है, ऐसा प्रशस्ति से सिद्ध है । गाथा-प्रमाण ८९४४ है; प्रशस्ति अलग ।
यह कथा व कथानायिका भुवनसुन्दरी-दोनों का निर्देश या उल्लेख, जहाँ तक मेरी जानकारी है वहाँ तक, पूर्वकालीन कोई साहित्य में प्राप्य नहीं है । जैन आचार्यों की परंपरा रही है कि जिस बात या पात्र को शास्त्रों का या पूर्वाचायों का समर्थन मिला-मिलता हो, उसीको विषय बनाकर वे चरित्र या कथा लिखेंगे । जबकि प्रस्तुत रचना के बारे में ऐसा हुआ नहीं लगता है । अब होगा ऐसा कि कोई व्यक्ति ग्रंथकार पर आक्षेप करेगा कि 'आप तो अपनी मनगढंत-निराधार या कल्पित-कथा बना रहे हैं । ऐसे संभवित आक्षेप को शायद लक्ष्य में रखकर ही ग्रंथकारने निम्नलिखित गाथाएं लिख दी लगती है :
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