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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ किं पुण नरिंद ! नियबुद्धिविभवअवगणियसुरगुरुविवेया । तुम्हारिसा न कज्जे कुणंति गुण-दोसपवियारं ? ||५०९।। इह देव ! संधि-विग्गह-जाणासणदुविहसंसया छ गुणा । जहजोग्गं कीरंता देंति सिरिं न उण विवरीया ॥५१०।। ता देव ! संधिजोग्गे रिउम्मि तुह विग्गहो गुरुयनीई । नीइविउत्तो राया पयाव-विहवक्खयं कुणइ ॥५.११॥ नियमंत-सत्तिपरिवज्जियाण सीहस्स कोवणं राय ! । संसयतुलाए हावइ नराण जीयं न संदेहो ।।५१२।। गरुओ न विग्गहिज्जइ अनायतत्तेहिं अहव विग्गहिओ । ता न चइज्जइ, चत्तो होइ अणत्थाय नियमेण ।।५१३।। दुयविहलारंभाणं उयरुयरिं जाण हुंति आरंभा । भीयव्व वैरिलच्छी ताण नरिंदाण संकमइ ।।५१४।। साहस-मंतधणाणं सिज्झइ कज्जं नरिंद ! गरुयं पि । देवा वि तस्स भिच्चा जस्सत्थि ससाहसो मंतो ।।५१५।। साहसरहियाण इहं दूरे परमंडलाण पच्चासा । नियमंडलं पि ताणं ओट्ठभइ राय ! वैरि(री)हिं ॥५१६॥ सो कह न परिभविज्जइ जो वैरिसु उवसमं पयासेइ । पसमो जईण भूसा न उणो विजिगीसुरायाण ।।५१७।। गब्भट्ठिओ विलिज्जउ सो पुरिसो बुद्धि-साहसविहूणो । जस्स न कोवपसाया जायंति जहाणुरूवेण ।।५१८।। नित्तेयम्मि नरिंदे च्छारेव्व न को पयं परिठ्ठवइ । जीवंतो वि मओ च्चिय जो न कुणइ विक्कम अहिए ॥५१९।।
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