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________________ ५२९ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ दरविहसियमुहकमलो वीरो जोइसिय-जयवडायाण । काउं महापसायं ससिणेहं भणिउमाढत्तो ।।५७९६।। 'अइमहया गंभीरा जलनिहिणो ते वि पलयकालंमि । खुब्भंति किमच्छरियं ? न उण तुम्हारिसा सुयणा ॥५७९७।। किं भन्नइ सुयणाणं ? अलद्धथाहमि जाण हिययंमि । मज्जंति महोयहिणो वि जम्मि जे पयइगंभीरा ॥५७९८।। पच्चक्खसज्जण च्चिय कलिकाले संभवंति सावेक्खा । ते कयजुए वि दुलहा निरवेक्खा जे परोक्खंमि ॥५७९९।। किं जंपिएण बहुणा ? का गणणा देस-विसय-विहवेहिं ? | एयं पि मह सरीरं आयत्तं तुम्ह दोहिं(ण्हं?)पि' ||५८००।। तो जंपइ जोइसिओ ‘जं उचियं होइ नियपहुत्तस्स । तं वीरसेण ! तुमए पयंपियं अब्भुवगयं च ।।५८०१।। तुह देव ! भुयणभारो वसइ सरीरंमि जंमि अकिलेसं । कह तं भुयणायत्तं पि कुणसि अम्हाण आयत्तं ? ||५८०२।। तुम्हारिसाण नरवर ! पयईए परोवयारनिरयाण । हिययाई सुगेज्झाई तुच्छेण वि मणकिलेसेण ॥५८०३।। ता देव ! देसकालोच्चि(चि)याइं कज्जाइं कुणसु सयमेव । तुह गुणगणबद्धाइं व विहडंति न अम्ह हिययाई' ॥५८०४।। इय जाव वीरसेणो जोइसिएणं च जयवडायाए । सह जंपइ ता सहसा जं जायं तं निसामेह ।।५८०५॥ सहसोत्थरंतबहुविहविज्जाहरवरविमाणनिवहेहिं । छाइज्जइ गयणयलं अकालमेहेहिं व सहेलं ॥५८०६॥ . 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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