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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
दिवो वीराहिवई नरिंदमाईहिं सव्वेहिं ॥५६६३॥ ते हिययावटुंभा ते च्चिय सुहडाण विक्कमक्करिसा । दिलृमि वीरसेणे सव्वे वि निरत्थया जाया ॥५६६४।। न कयाइ जम्मणेसुं लद्धपएसं भयं वरभडाण । तं वीरदसणेणं सव्वंगं ताण वित्थरियं ।।५६६५।। तो तस्स विम्हयकरं भुयणस्स वि जणियगुरुचमक्कारं । दऔं तहा सरूवं पुरिलोओ चिंतए एवं ।।५६६।। ‘एसो को वि अउव्वो परमप्पा परमदेवयारूवो । न सुरा-सुर-खयराणं मज्झे एवंविहो अत्थि ।।५६६७।। एयस्स तेयपसरं नयणाई जणस्स असहमाणाई । मउलणलद्धसुहाई वंछंति न कह वि उम्मेसं' ॥५६६८।। तो जंपइ जोइसिओ ‘रे मूढा ! किं वियप्पजालेण ? । सो एस वीरसेणो तुम्ह मए जो पुरा कहिओ' ॥५६६९।। ‘सो एस वीरसेणो'त्ति जंपिए जायविसमरोसेण । नरसीहनरिंदेणं अह एवं भणिउमाढत्तं ॥५६७०॥ 'जइ एस वीरसेणो एसो च्चिय ता मए निहंतव्यो । चिटुंतु ता इमाई करमुट्ठिपरिट्ठियाइं मे ॥५६७१।। भो वीरसेण ! संपइ धर सुदिढं नियकरंमि करवालं । मह दंसणेण जम्हा गलंति वेरीण सत्थाई ॥५६७२।। जइ नाम कह वि गयणे वियरसि ता वियर मह भउब्भंतो । एत्थ ठिओ वि न छुट्टसि किं बहुणामिह] जमस्सेव ॥५६७३।। जइ स च्चिय तुह सत्ती मए सुया जा नरिंदलोयाओ । ता होहिसि मज्झ खणं रणरसतण्हाविणोयखमो ॥५६७४।।
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