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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ कुमरो भणइ न बुज्झसि एवं भणिओ वि सामवयणेहिं । ता भण किं तुह कीरइ ? तुह अहिलसियं करिस्सामि ॥२९१॥ तो भणइ खेत्तवालो पोरुसगव्वुत्तुणो परिब्भमसि । ता तं तुह निम्मूलं रणम्मि दप्पं हणिस्सामि ॥२९२।। तो कुमरेणक्खित्ता दुवे वि नरनाह-खेत्तवाला ते । एह समं चिय ढुक्कह एगो वि हु दोवि निहणिस्सं ॥२९३।। तो खेत्तवई जंपइ मए समं भिडसु ताव रे धिट्ट | पच्छा एएण समं जं रुच्चइ तं करेज्जासु ॥२९४॥ कुमरेण तओ भणियं वीर ! तुम ताव अच्छ मज्झत्थो । जिणिऊण खेत्तवालं तए वि सह जुज्झइस्सामि ।।२९५।। तो अप्फोडियभुयदंडघायनिरघायबहिरियदियंतो । अभिट्टइ हरिविकुम-कुमरो किर खेत्तवालस्स ।।२९६।। रणरहसपुलइयतणू कुमरो दुईसणो य खेत्तवई । जुगवं समोत्थरंता रसव्व नं वीर-बीभत्सा(च्छा) ।।२९७।। अभिट्टइ विच्छुट्टइ ओहट्टइ लोट्टइ(ई)य खणमेत्तं । पहरइ नीहरइ खणं कुमरो रक्खेण अक्खित्तो ॥२९८।। अइनिठुरकुमरपहार-ताडिओ उव्वमेइ रुहिरोहं । तव्वेलुव्वेविरदेहदंडपरिनीसहो रक्खो ||२९९।। आसासिऊण य खणं जा कुमरो तस्स पहरइ खणद्धं । बहुवेयालाण तउ समंतओ सेन्नमोत्थरियं ॥३००।। दठूण रणरसुव्बूढबहलरोमंचकंचुउच्छइओ । सेन्नं पसरइ पसरंतहिययसंतोससुहिओ व्व ॥३०१॥
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