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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ बहुयं पि हु सिख(क्ख)विओ सो भणइ 'न अम्ब ! मह इमाहितो । अन्ना निवसइ हियए सुरूवतियसंगणा जइ वि ॥३१४९।। जं होइ किं पि तं होउ अम्ब ! मरणंपि जाव मह इटुं । चंदसिरिरायरसियस्स नवर(रं) जइ कह वि संपडइ' ।।३१५०।। इय पुत्त ! तस्स एसो महग्गहो तारिसो पुण इमीए । ता पज्जंतो इह केरिसो व होही न जाणेमि' ॥३१५१॥ इय सोऊणं कुमरो चिंतइ 'कह पेच्छ कामिहिययाई । होंति अज्ज(ज)हत्थपेच्छीणि? न उण पेच्छंति परमत्थं ।।३१५२।। ता कह होही संपइ चंदसिरीदंसणं?' ति चिंतंतो । निसुणइ बहुदुक्खसरं रुइयरवं अफुडवन्नकमं ॥३१५३।। तो सो पयडियकारुन्नभावतढुक्खदुक्खियमणो व्व । पुच्छइ का अम्ब ! इहं रोवइ बहुदुक्खजुयइ व्व ?' ||३१५४।। तो भणइ बंधुजीवा 'पुत्तय ! सच्चेव रुयइ चंदसिरी । बहुदुक्खा सोऊणं मरणं सिरिवीरसेणस्स ॥३१५५।। केत्तियमेत्तं एयं ? पढमं सोउं असोयपच्चक्खं । मुच्छं गया तहा सा जह चत्ता जीवियासा वि ।।३१५६॥ पुत्त ! न कीय वि दिट्ठो नारीए एरिसो मए नेहो । सिरिवीरसेणउवरिं जारिसओ नवर एयाए ।।३१५७।। ता पुत्त! चिट्ठसु तुम इहई मणिमत्तवारणे विमले । अहयं पुण गंतूणं रुयमाणिं संठवेमि तयं' ॥३१५८।। तो भणइ वीरसेणो ‘एवं कुणसु'त्ति सा गया उवरि । कुमरो वि अलक्खपओ अन्नदुवारेण आरूढो ।।३१५९।।
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