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________________ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ सिरिवीरसेणविणिउत्तखयराओ सुयमसोएण । जह पवणकेउणा सो वियारिओ बंधुवेरेण || ३१३८ || आयन्त्रिऊण एवं वयणं पणिहिस्स जायपरिओसो । सयमेव गओ असोओ तस्स पउत्तिं गवेसंतो' ।।३१३९॥ पुण भणइ वीरसेणो 'परिणीया किं न सा असोएण ?' | वुड्ढा भणइ 'न मन्नइ अन्नं पयिं वीरसेणाओ ||३१४०|| सो को वि इह तिलोए नत्थि उवाओ न जो असोएण । तिस्साराहणहेऊ विचिंतिओ तयणुरत्तेण ॥३१४१॥ सा उण एकग्गमणा पिय- माई-बंधु सहियणं चइय । 'मह वीरसेण ! सरणं हवेज्ज जम्मंतरे वि तुमं' ||३१४२ ॥ इय भणमाणी चिट्ठइ आससइ खणं ममं समासज्ज । पुच्छइ कहं सुएहिं तुह कहिओ कमलकेउवहो ? || ३१४३॥ ह ह ण सारुतं ( सा पुणरुत्तं ?) पुच्छेइ तहा तहा कहेम अहं । मह विरहिया सदुक्खं रोयइ तं चेव सुमरंती' || ३१४४ ॥ पुण भणइ वीरसेणो 'न बलामोड़ेण परिणइ असोओ । कन्ना खु सा अवस्सं सयदिन्ना होइ एगस्स' ||३१४५ || सा भइ 'पुत्तमेवं नासोओ भुंजए अणिच्छंती (तिं) । परनारिं आजम्माओ निच्छओ तस्स किर एसो ||३१४६ ॥ अविवेई सो पुत्तय ! एत्तियमेत्तं पि जो न जाणेइ । अप्पा परं विगुप्पइ अनेहनेहाणुबंधेण ||३१४७ ।। सो चंदसिरिविओए खिज्जइ सा वीरसेणविरहेण । ता पुत्त ! लज्जणिज्जो बुहाण एसो खु वृत्तंतो ||३१४८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only २८७ www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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