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________________ २२४ सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ इय एवमाइ गुरुणा वित्थरओ जइ-गिहत्थभेएण । पयडियसुहुमपयत्थो कहिओ जिणदेसिओ धम्मो ।।२४४६।। आयन्निऊण एयं नरवइपमुहाण नयरलोयाण । कीरस्स वि संजाओ तइया जिणधम्मपरिणामो ।।२४४७।। 'इच्छामो'त्ति भणित्ता सव्वेहिं वि मनिओ गुरुवएसो । वयदाणेण वि गुरुणा अणुग्गिहीया जहाजोग्गं ।।२४४८।। एत्थंतरंमि पुरओ ठाऊण सुओ गुरुस्स नमिऊण । बाहोल्लनयणजुयलो विनवइ भवन्नवुवि(व्वि)ग्गो ।।२४४९।। 'भयवं ! परव्वसाणं उव्विग्गाणं पि भवनिवासाओ । चित्ताबाहाए सुहं नित्थरइ न एस जिणधम्मो' ।।२४५०॥ तो गुरुणा भणिएणं नरवइणा सायरं अणुन्नाओ । कीरो गुरूवइ8 गेण्हइ नवकारमिह पढमं ॥२४५१।। तत्तो य जहाभिहियं सावयधम्मं च भवभउव्विग्गो । स कयत्थं मन्नतो अप्पाणं गेण्हइ कीरो ।।२४५२।। तो भणइ सो च्चिय पुणो ‘भयवं ! तुह दंसणेण जाणेमि । जह पंजराओ मुक्को मुच्चिस्सं तह भवाओ वि' ॥२४५३।। नमिऊण मोहमलं नरनाहं पुच्छिऊण रायसुओ । पेच्छंताणं ताणं उड्डीणो गयणमग्गंमि ॥२४५४।। तो वीरसेण ! कीरो सो इहइं आगओ पएसंमि । चिट्ठइ जिणोवइढें पालंतो अविकलं धम्मं ।।२४५५।। अह जो वि भद्दपासे आसि सुओ सो अपुन्नजोएण । पंजरगओ वि खद्धो कहमवि मज्जारपोएण ।।२४५६।। · Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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