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________________ २१० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ दुमखडियपत्तसंच्छन्नमेइणीमुणियजणअसंचरणा । गयणग्गलग्गघणपत्तसाहिसंच्छन्नरविकिरिणा ॥२२९०।। जा होइ वसंतसिरिव्व विविहतरुकुसुमपरिमलसमिद्धा । अंतेउरवसुहा इव निरुद्धजणनिग्गम-पवेसा ॥२२९१।। पासंडियधम्मकह व्व निहयअन्नोन्नसत्तसंघाया । कौरवसेणव्व निरंतरद्धणुल्लसियघणबाणा ।।२२९२।। धणवालमहाकइभारइ व्व कयतिलयमंजरिविलासा । वेसव्व विडविलोला कइबाणकहव्व हरिसहिया(?) ।।२२९३।। इय सो तत्थेक्कंगो वियडपयक्खेवदलियमहिवीढो । वामेयरदिसितरुगणकोऊहलखित्ततरलच्छो ।।२२९४।। कत्थइ दरियमहाकरिकुंभत्थलकलियकेसरिझडप्पो । अह उठ्ठिऊण तत्तो हरिणा सह कुणइ रणकीलं ॥२२९५।। कत्थइ सुदीहनंगूलधरियकेसरिकिसोरमक्खिवइ । उद्धं भमाडिऊणं मुच्छाविहलंघलं (?) कुणइ ।।२२९६।। कत्थइ अउंव्वसरहावलोयणणु(ण्णु)नकोऊहल्लेण । कीलिज्जइ तेण समं विचित्तकीलाहिं कुमरेण ॥२२९७।। एवं सो अणुदियहं लंघतो तं महाडविं भीमं । तण्हापरिसुसिओट्ठो उदयं अनि(नि)सिउमाढत्तो ।।२२९८॥ सच्चवियं सारस-रायहंसका(भा?)रंड-चक्कवायाण । सद्देहिं सुहसरूवं सरोवरं वीरसेणेण ॥२२९९॥ दूराओ च्चिय दिलै वियडमहापालिवेढियदियंत । भुयवल्लिमंडलेण व वसुहाए व गाढमवगूढं ।।२३००।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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