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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥
'कहमन्नह प्पडु( डू ? ) या इह चिट्ठइ निप्पओयणा एसा । जा खणमवि दासीजणसहीसहस्सेहिं अविरहिया ?' ॥२१४६॥ ता पहरिसवसपसरियगयवेयविसंठुलंसुयनिवेसो । विसिऊण गब्भहरयं अक्खिवइ कुमारउत्तरियं ॥२१४७॥ 'किं बंधुयत्त ! एयं ?' इय भणिए वीरसेणकुमरेण । 'मह देसु पारिओसिय' मिय भणियं बंधुयत्तेण ॥ २१४८ || कुमरो भाइ 'किमिहरं चंदसिरी आगया परमइट्ठा ? । मं पारिओसियं जेण मग्गसे जायसंतोसो' ।। २१४९ ।। ' एवं ' ति भणइ मित्तो कुमरो पुण भणइ दीहमूससिउं । 'कहमम्ह एत्तियाई पुन्नाई वयंस ! होहिंति ?” ।।२१५० ।। तो भइ बंधुयत्तो 'असज्झमिह नत्थि तुज्झ पुन्नाणं । सिरिचक्केसरिदेवीपसायसंपत्तिगरुयाण ।। २१५१ ॥
सा वीरसेण ! इहई समागया निच्छियं तुह सवामि । चिट्ठइ पच्चक्खं चिय पेच्छसु बाहिं महावीर !' ।। २१५२ ।। 'चिट्ठइ जाणामि अहं लिहिया भित्तिम्मि जा मए पुव्विं ।' इय भणइ वीरसेणो अपत्तियंतो वयंसस्स ।। २१५३ || पुण भइ बंधुयत्तो निव्वत्तसु चक्किणीए पयपूयं । पच्छा तुह दाविस्सं इह चैव विचित्तजसधूयं ॥ २१५४ ॥ ' एवं होउत्ति तओ कुमरो निव्वत्तिऊण देवीए । पूयाविहिं महंतं संथुणइ तओ पहिट्ठमणो ॥ २१५५ ।। “पणमह अप्पडिचकं करालकरचक्ककंतिकब्बुरियं । अरितिमिरपहायकालुग्गमंतबहुसूरसंज्झव्व ॥ २१५६ ॥
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