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सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ नयणाइ दंसणेणं तग्गुणगहणेण वयणकमलाई । चित्ताई चिंतणेणं जणस्स जायाइं सफलाइं ॥२०९१।। नरलोयअसंभवरूवदंसणुप्पन्नविम्हयरसाण ।। लोयाण मच्चलोयंमि आसि सारत्तपडिवत्ती" ॥२०९२।। इय एवमाइबहुविहवियप्पमयगोयरं नरवरिंदो । पइसावइ नियभवणे कुमरं अइगरुयरिद्धीए ।।२०९३।। पढमं परियप्पियमणिमयम्मि सीहासणम्मि उवविसइ । उवविट्ठम्मि नरिंदे कुमरो बहुगोरवमहग्धं ॥२०९४।। कयसमुचियपडिवत्ती विचित्तजसराइणा इमं भणिओ । 'इह कुमर ! तुमं राया अम्हे उण सेवया तुज्झ ॥२०९५॥ जं जह काले उचियं तं तह अम्हाण देज्ज आएसं । मा वच्छ ! सकीयम्मिं परबुद्धिं इह करेज्जासु ।।२०९६।। तो नियमंदिरसरिसं पासायं देइ वीरसेणस्स । तयणु विसज्जइ राया सावासं उचियकयकज्जो ॥२०९७॥ अच्छइ निए व गेहे कुमरो संतुट्ठमाणसो एत्थ । मणचिंतियसंपज्जंतसयलवत्थू सपरिवारो ।।२०९८।। इय तुम्ह मए कहियं चरियं संखेवओ कुमारस्स । निसुएण जेण जायइ विम्हयरसपरवसं हिययं ।।२०९९।। तो भणइ विलाससिरी ‘सहि ! अज्ज वि इह जयम्मि दीसंति । उप्पाइयअच्छरिया सुकप्पतरुणोव्व सप्पुरिसा' ॥२१००।। तो चंदसिरी पभणइ ‘गोवद्धण ! को तुम कुमारगिहे ? ।' सो भणइ 'तस्स पिउणो पुरोहिओ आसि मज्झ पिया' ।।२१०१।।
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