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________________ १०० सिरिभुयणसुंदरीकहा ॥ अह विहियगोसकिच्चो राया सामंत-मंतिपरियरिओ । उच्छववावारनिरूवणेण पज्जाउलो जाओ ।।१०७८।। संमुहनिहित्तलोयण-निओयवग्गस्स दिन्नआएसो । जहजोग्गपुरपरिग्गह-बहुविहसंपेसियपसाओ ।।१०७९।। अणुरूवनिरूवियहरि-करिंदसंदोह-संदणसमूहो । सरहसविलासिणीयण-विइन्नदिव्वंसुयाहरणो ॥१०८०।। अवरोहचेडियायण-कन्नंतकहिज्जमाणनियकज्जो । तदि(द्दि?)नहिययनरवइ-पसंत्त विन्न त्तुय(पसंत चित्तब्भुय) समूहो ।।८१॥ इय नीसेसंतेउर-नियपरियणपौरपेसणसयण्हो । जावच्छइ नरनाहो ता चंदसिरी तहिं पत्ता ||१०८२।। मयणाहिमीसघणसार-सुरहिसिर(रि)खंडकयसमाहलणा । फंसाणुमेयसुनियत्थ-दिव्ववरवत्थजुयलिल्ला ।।१०८३।। पच्चंगघणपरिट्ठिय-सुसोह-सुमहग्घमणिमयाहरणा । उभयंतवरविलासिणि-करकलियचलंतसियचमरा ।।१०८४।। तो पिउपणामपुव्वं पुव्वपरिट्ठवियविट्ठरे तयणु । उवविठ्ठा चंदसिरी सिरि व्व सोहासमुदएण ।।१०८५।। परियणियमेत्तं चिय पुरओ पसरंतकिरणवित्थारं । परिसंट्ठियं सहेलं विमाणरयणं नरवइस्स ।।१०८६।। पुत्ति!मह गोत्तनहयल-बीयंदुकल व्व जणसमूहेण । वंदिज्जती गयणे गच्छ तुमं वरविमाणेण ।।१०८७।। एयाओ जणणीओ सविलासविलासिणीओ एयाओ । एसो वि मंति-सामंत-पभिइ सयलो परियणो वि ॥१०८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001382
Book TitleSiribhuyansundarikaha
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorShilchandrasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages838
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size10 MB
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