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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र इधर अक्षर, अर्थात् अविनाशी स्वभाव वाले हैं और उधर अलिपि अर्थात् कर्म - लेप से रहित हैं, अथवा लिपि - शरीर से रहित हैं । मोक्ष में न शरीर रहता है और न कर्म का लेप ही । अब कुछ भी विरोध नहीं रहा । तीसरी और चौथी पंक्ति में कहा गया है- 'आप अज्ञानवत् ( अज्ञानवान् ) हैं, तथापि आप में विश्व विकासी ज्ञान स्फुरित होता है ।' भला जो अज्ञानवान् है, उसमें विश्व - विकासी ज्ञान कैसे स्फुरायमाण होगा ? यह विरोध है । परिहार के लिए अज्ञानवत् का अर्थ बदलना होगा। अज्ञानवत् का दूसरा अर्थ हैअज्ञ प्राणियों की रक्षा करनेवाला । संस्कृत व्याकरण के अनुसार पदच्छेद कीजिए - 'अज्ञान् + अवति' 'अव' धातु का अर्थ - रक्षा करना है । 'अज्ञान' द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है । 'अवति' सप्तमी विभक्ति का एक वचन है, जो श्लोक में त्वयि के साथ सम्बन्ध रखता है । जो अज्ञों का रक्षण करता है, वह अवश्य ही विश्व विकासक ज्ञानी होगा । अब क्या विरोध रहा ? ४४ [ ३१ ३१ ] प्राग्भार- संभृत-नभांसि रजांसि रोषादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायाऽपि तैस्तव न नाथ ! हता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ हे नाथ ! दुष्ट कमठ ने क्रुद्ध होकर आप पर पहले बड़ी भीषण धूल की वर्षा की थी, ऐसी वर्षा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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