________________
४२
कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
यह कि मिट्टी का घड़ा तो अग्नि में पका हुआ होने पर ही पानी में तैर कर दूसरों को पार उतारता है, कच्चा घड़ा तो जल का स्पर्श होते ही दूसरों को पार करना तो दूर रहा, खुद अपना अस्तित्व भी खो बैठता है, पानी में गलकर नष्ट हो जाता है । हाँ, तो आश्चर्य की बात है कि भगवान् पार्थिव-निप का कार्य तो करते हैं, परन्तु घड़े के समान कर्म-विपाक से युक्त नहीं, प्रत्युत रहित हैं। विपाक से रहित हो कर पार्थिव-निप भगवान् कैसे दूसरों को पार उतारते हैं ? यही तो आश्चर्य है ! प्रभु तेरी लीला !
[ ३० ] विश्वेश्वरोऽपि जन-पालक ! दुर्गतस्त्वं ,
कि वाक्षर-प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व-विकास-हेतु ॥ हे जन-प्रतिपालक ! आप अखिल विश्व के ईश्वर होते हुए भी दुर्गत हैं-संसारी जीवों को प्राप्त होने में दुर्लभ हैं अथवा दुज्ञेय हैं। हे नाथ ! आप अक्षरप्रकृति-नित्य स्वभाव से युक्त होते हुए भी अलिपि हैं, कर्म-लेप से रहित हैं। हे प्रभो ! आप अज्ञानवत्अज्ञप्राणियों के संरक्षक हैं, तथापि आप में त्रिभुवन को प्रकाशित करनेवाला केवल-ज्ञान सदा प्रकाशमान रहता है।
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org