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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
[ १६ ] अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वं,
भव्यः कथं तदपि नाशयसे शरीरम ? एत्स्वरूपमथ, मध्यवितिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥ हे जिनेन्द्र ! जिस शरीर के मध्य भाग-हृदय में भव्य प्राणी आपका निरन्तर ध्यान करते हैं, आश्चर्य है। आप उसी शरीर को नष्ट कर देते हैं ! यह कैसी उलटी गति है, कुछ समझ में नहीं आता।
अथवा आपका यह कार्य सर्वथा उचित ही है। जब महापुरुष मध्यस्थ हो जाते हैं, बीच में पड़ जाते हैं, तो विग्रह (शरीर और कलह) को पूर्णतया समाप्त कर देते हैं।
टिप्पणी “संसार में यह रीति प्रचलित है कि जो जहाँ रहता है, अथवा जहाँ जिसका ध्यान-सम्मान आदि किया जाता है, वह उस जगह का विनाश नहीं करता। परन्तु, हे भगवन् ! आप भव्य-जीवों के जिस शरीर में हमेशा भक्ति-भावपूर्वक ध्यानरूप से चिन्तन किए जाते हैं, आप उन्हें उसी विग्रह-शरीर को नष्ट करने का उपदेश देते हैं। यह तो आपके लिए किसी तरह भी योग्य नहीं है ।" भगवान् का उपदेश कर्म-बन्धनों से मुक्त होकर विदेहमुक्ति-मोक्ष प्राप्त करने का है।
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