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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र पाखण्ड का एक प्रतिनिधि है । अतः उपलक्षण से पाखण्डमात्र को नष्ट करने के लिए भगवान् धूमकेतु के रूप में उस समय उदय हुए थे। धूमकेतु का दूसरा अर्थ अग्नि भी होता है, क्योंकि धूम - धुआ और केतु-ध्वजा, यानि धुए की ध्वजावाली अग्नि । यह अर्थ भी ठीक है । भगवान् पाखण्ड को भस्म करने के लिए अग्नि के समान थे। देवताओं का गुरु बृहस्पति कितना अधिक बुद्धिमान होता है ? जब वह भी भगवान् की स्तुति पूर्णरूप से नहीं कर सका, तो भला मैं तुच्छ-बुद्धि, क्या स्तुति कर सकता हूँ ? -- इस प्रकार आचार्य अपनी लघुता और भगवान् की महत्ता सूचित करते हैं। [ ३ ] सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप मरमादशाः कथमधीश ! भवन्त्यधीशाः । धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर यदि वा दिवान्धो, __ रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ? हे नाथ ! आपके अनन्त महामहिम स्वरूप को, साधारणरूप से भी वर्णन करने के लिए हमारे जैसे पामर जीव किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं ? दिन में अन्धा बन कर समय गुजारने वाला उल्ल का पुत्र, कितना ही चतुरता का अभिमानी ढीठ क्यों न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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