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________________ ६४ चारित्र्य-सुवास की। हरिदासजीने तो नित्यक्रमानुसार परमात्माका सुंदर भजन गाया। बादशाहको अत्यन्त प्रसन्नता हुई। हरिदासजीका यथायोग्य सत्कार करके वे दरबारमें आये। एक दिन सभामें अकवरने तानसेनसे अपने गुरुद्वारा गाया हुआ भजन गानेको कहा। तानसेनने गाया तो सही, परन्तु बादशाहको उस दिन-जितना आनन्द नहीं आया। बादशाहने तानसेनसे पूछा, 'इस समय तूने जो भजन गाया वह उस दिन जितना प्रिय नहीं लगा इसका क्या कारण है ?' तानसेन बोला, “मैं तो आपको प्रसन्न करनेके लिए गाता हूँ। मेरे गुरु आपको प्रसन्न करनेके लिए भजन नहीं गाते थे, परन्तु बादशाहके बादशाहको प्रसन्न करनेके लिए गाते थे। भजन तो वही है, फिर भी मेरे और उनके संगीतके बीच अन्तर डालनेवाला कारण एक ही वादशाह प्रसन्न हुए और गुरु हरिदासके समागममें अधिकसे अधिक आनेका प्रयास करने लगे। मंत्रीकी दानशीलता एक समय गुजरातके महाराजा कुमारपालने निकटके राज्यपर चढ़ाई करनेके लिए अपने चाहड नामक एक सेनापतिको भारी सेना लेकर भेजा। मार्गमें एक जगह बहुत-से गरीब भिखारियोंने उनके पास दानकी याचना की। सेनापतिने खजानचीको एक लाख मुद्राएँ देनेको कहा। ‘राजाकी आज्ञा नहीं है' ऐसा कहकर खजानचीने धन देनेको मना करेनपर सेनापतिने जबरदस्ती धन लेकर उन याचकोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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