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________________ ४० चारित्र्य-सुवास बालिकाको ऐसी शिक्षा दी है ?' माताने कहा 'हाँ'। तव महाराजने पूछा, 'तूने धर्मशास्त्र पढ़े हैं ?' माताने कहा, 'नहीं महाराज, मैं पढ़ी हुई नहीं हूँ।' 'तुम्हारा निर्वाह कैसे होता है ?' 'मैं जंगलमें जाकर लकड़ी काट लाती हूँ और उसमेंसे जो मिलता है उससे निर्वाह हो जाता है।' 'तो क्या इस बालिकाके पिताजी...' वालिकाकी माता उदास हो गई। पुनः स्वस्थ होकर बोली, 'बालिकाकी छोटी उम्रमें ही उसके पिताका स्वर्गवास हो. गया। वे अपने पीछे तीस वीघा जमीन और दो वैल छोड़ गये थे। मेरा स्वास्थ्य अच्छा था और स्वाश्रयपूर्वक परिश्रम करके आजीविका चला सकती थी इसलिए मैंने वह सम्पत्ति बेच दी, और उसमेंसे गाँवके लोगोंके लिए एक कुआँ और पशुओंके लिए पानीका एक हौद गाँवके सेटकी देखरेख में वनवा दिये। गाँवमें अब पीनेके पानीकी कमी नहीं है।' एक अपढ़ गाँवकी बाईसे ऐसी यथार्थता सुनकर महाराजश्री और सभी कार्यकर लोग सानन्द आश्चर्यचकित हुए। 'बुद्धिमानको इशारा काफ़ी' - - - विन्ध्याचल पर्वतकी श्रेणियोंमें अकेला घुड़सवार तीव्र गतिसे- चला जा रहा है। अचानक उसने एड़ी लगाकर घोड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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