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________________ चारित्र्य सुवास ३५ सेवाभावसे आहारदानकी तैयारी की । उस कन्याका लावण्य देखकर योगीको विस्मय हुआ । थोड़ा-सा आहार लेकर, 'बस अब कुछ नहीं चाहिए' ऐसा कहते हुए फिरसे कन्याकी ओर अयोग्य दृष्टिसे देखा । पानी पीकर योगी आकाशमार्गसे वापस जाने लगे, परन्तु उनकी शक्ति कुण्ठित हो गयी । योगानुयोग कि उसी समय मगधेश्वरने विज्ञप्ति करायी कि 'आज तपस्वी उद्ररामपुत्र मगधजनोंको दर्शन देंगे और लम्बे समयकी लोकेच्छाको पूर्ण करेंगे।' योगीने जैसे-तैसे राजासे अपनी बात मनवा ली और धीरे-धीरे पैदल चलकर नदीकिनारे अपनी कुटियामें पहुँच गये परन्तु उनकी सिद्ध की हुई विद्या तो नष्ट हो चुकी थी । आत्मसाधनाकी सभी भूमिकाओंमें संयमका कितना महत्त्व है, और थोड़ी भी असावधानी से कैसा पतन होता है, यह हमें इस घटनासे सीखना है। सच्ची लगनसे कार्यसिद्धि बारहवीं शताब्दीके आरम्भमें देवगिरि (दक्षिण महाराष्ट्र) में यादव वंशके राजा राज्य करते थे । ३० वहाँके एक छोटे से गाँवमें एक विद्यार्थी परिश्रम करते हुए भी परीक्षामें उत्तीर्ण नहीं हो पाया, इसलिए उसने विचार किया कि 'मैं पढ़नेके योग्य नहीं हूँ अतः मुझे अध्ययन छोड़ देना चाहिए।' ऐसा विचारकर वह गाँवके बाहर कुएँके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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