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.....भवतु मे
अनिर्वारौद्रेकस् त्रिभुवन-जयी काम-सुभटः, कुमारावस्थायामपि निजबलाद्येन विजित: । स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशमपदराज्याय स जिनो ,
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ७॥ संसार में कामरूपी योद्धा कितना अधिक विकट है? वह त्रिभुवन को जीतने वाला है, उसके वेग को महान् से महान् शूरवीर भी नहीं रोक सकते । परन्तु जिन्होंने अपने आध्यात्मिक बल के द्वारा, उस दुर्दान्त कामदेव को भी नित्यानन्द स्वरूप प्रशम पद के राज्य की प्राप्ति के लिए, भरपूर यौवन अवस्था में पराजित किया, ऐसे भगवान् महावीर मेरे नयन-पथ पर सदा विराजमान रहें अर्थात् मेरे नयनों में समा जाएं।
भगवान्- महावीर ने तीस वर्ष की अवस्था में राजपरिवार छोड़ा, दीक्षित हुए। साधना के दुर्गम पथ पर चले। साधना का मार्ग दुर्गम है, क्योंकि संसार मार्ग में उपलब्धि बाहर है, संघर्ष बाहर है, द्वन्द्व बाहर है, लड़ना बाहर है, जीतना बाहर है। एक ओर, एकमुखी है सबकुछ ! साधना के पथ पर दोनों किनारों पर, अंदर-बाहर उभयत: द्वन्द्व, संघर्ष, हार, जीत, खोना, पाना, बंधन, मुक्ति सबकुछ उभयमुखी है।
बहुतों ने रोका, राजकुमार यह तुम्हारा मार्ग नहीं है। साधारण नहीं असाधारण थे बंधन, महावीर को बांधने के लिए मजबूत बंधन थे। राजपरिवार, पिता, भाई-बहन का स्नेह, शासन-संपदा, किन्तु किसी के रोकने से रुके नहीं महावीर।
बाह्य बंधन उसी को बाँधते हैं, जो भीतर से स्वयं उससे बंधा है। भीतर का बंधन है तो बाहर के बंधन मजबूत होते हैं। भीतर का बंधन न हो तो मजबूत से मजबूत बंधन शिथिल होते जाते हैं।
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