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भवतु मे..
नमन्नाकेन्द्राली-मुकुट - मणि-भा-जाल-जटिलं, लसत्पादाम्भोजद्वयमिह यदीयं तनु-भृताम् । भव-ज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ३॥ जिनके चरण-कमल नमस्कार करते हुए इन्द्रों के मुकुटों की मणियों के प्रभापुंज से व्याप्त हैं, और जो स्मरणमात्र से संसारी जीवों की भवज्वाला को जलधारा के समान पूर्ण रूप से शांत कर देते हैं, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी सर्वदा मेरे नयन-पथ पर विराजमान रहें अर्थात् मेरे नयनों में समा जाएं ।
दो प्राणी हैं। एक प्राणी है धरती पर। वह है मनुष्य। मनुष्य कोई सर्वसाधारण नहीं है। सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। उसकी श्रेष्ठता के, महानता के गुण-गान गाए हैं-शास्त्रकारों ने । इतने गान हैं मनुष्य की महानता के संबंध में, पढ़ते हैं तो मुग्ध कर जाते हैं कि हाँ, हम भी कुछ हैं !
दूसरा प्राणी है आकाशवासी देव । देवता की महिमा के भी गान गाए हैं। यह करो, वह करो तो देवता प्रसन्न हो जाएँगे। प्रसन्न होंगे तो तुम्हारा सब कर देंगे। बिना उनके तुम कुछ नहीं कर सकते । देवता की पूजा करोगे, देवता प्रसन्न होंगे, तो वर्षा होगी, खेती होगी, तुम्हें खाने को अन्न मिलेगा।
धर्म था-बन्धन की मक्ति के लिए आत्मा की पवित्रता के लिए। लेकिन ऐसी उल्टी गंगा बहा दी कि धर्म को भी देवताओं को प्रसन्न करने का हेतु बना दिया। देव कैसे बनेगा? तो कहा गया कि धर्म, साधना, तप, त्याग, सदाचार जो हैं, उनसे स्वर्ग में देव बन जाओगे। त्याग का फल भोग बताया जाने लगा। इतना हो गया कि गणित भल गए। कहा—छोड़ो यहाँ पर सबकुछ; मरकर स्वर्ग में जाओगे, वहाँ सब मिल जाएगा। यहाँ पत्नी छोड़ोगे, वहाँ अप्सराएं मिलेंगी, स्वर्णसिंहासन मिलेंगे, भोगों की कमी नहीं रहेगी।
__एक प्रश्न है—मनुष्य की श्रेष्ठता धर्म से है, सदाचार से है, अन्दर की पवित्रता से है, तब धर्म की श्रेष्ठता तो कुछ रही नहीं, अगर मनुष्य से देवता श्रेष्ठ
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