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________________ अनेकान्त है तीसरा नेत्र एक भाई ने मुझे लक्ष्य कर कहा-“आज आप अध्यात्म की, साधना की और योग की चर्चा करते हैं, किन्तु इतने समय तक आप दर्शन के विषय में लिखते थे, दर्शन की गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। आज उन सारी बातों को छोड़ कर अध्यात्म और योग की बातें करने लगे हैं।" ___ मैंने सुना। मुझे हंसी आई कि दुनिया भी कैसी अजीब है । यथार्थ में अब मैं जो कर रहा हूं वही दर्शन का काम है। दर्शन का काम अब शुरू किया है। इतने दिन तक जो करता था, वह उधार का काम था, मूल का काम नहीं । वह केवल बुद्धि का काम था, मनन और चिन्तन का काम था। वह छोटा काम था। बुद्धि, चिन्तन और मनन से संपादित होने वाला काम बहुत छोटा काम होता है। वास्तव में दर्शन वह होता है जिससे कुछ प्रत्यक्ष हो । जब हम तथ्य का साक्षात्कार करते हैं, उसकी अनुभूति करते हैं, तब दर्शन होता है । जब साक्षात् नहीं होता, तब दर्शन नहीं, दोहराना मात्र है। वास्तव में हम दोहराए चले जा रहे हैं। पुराने ग्रन्थों की बात मैं दोहरा दूं। मेरी बात दूसरा दोहरा दे और उसकी बात उसका पश्चात्वर्ती कोई दोहरा दे, यह सरल काम है, पर यह दर्शन नहीं है। टेपरिकार्डर बहुत अच्छा दोहराता है। आदमी में वह क्षमता नहीं हैं कि अक्षरश: दोहरा दे । कम्प्यूटर या टेपरिकार्डर यह काम आसानी से कर लेता है । वह दर्शन नहीं कहा जा सकता। वह मात्र तोतारटन ही होगा। दर्शन का पहला बिन्दु जो दार्शनिक इस मस्तिष्क की सीमा से परे, स्नायु-संस्थान की सीमा से परे, ग्रन्थि-संस्थान से परे जाकर सूक्ष्म शरीर की संरचना तथा उसके साथ काम करने वाली चेतना के स्तर पर जाकर तीसरे नेत्र को उद्घाटित कर, अनेकान्त की प्रज्ञा को जगाकर वस्तु-सत्य का साक्षात् करता है, वह है दर्शन का पहला बिन्दु । जहां बुद्धि पूरी होती है, वह है दर्शन का पहला बिन्दु । बुद्धि का अंतिम बिन्दु ही दर्शन का पहला बिन्दु है। तर्क की प्रयोजनीयता तर्कशास्त्र को दर्शनशास्त्र मानना बहुत बड़ी भ्रांति है। तर्कशास्त्र केवल व्यवहार को चलाने वाला शास्त्र है। तर्क जरूरी है। जीवन का एक पहलू है-व्यवहार । व्यवस्था-तंत्र में व्यवस्था का पालन करना होता है। वहां तर्कशास्त्र भी जरूरी होता है । यदि तर्कशास्त्र न हो तो व्यवस्थाओं का निपटारा नहीं हो सकता । तर्क अनुपयोगी नहीं है। अनेकान्त की दृष्टि से देखने वाला किसी भी बात को अनुपयोगी नहीं कह सकता, मिथ्या या असत्य नहीं कह सकता। कोई न्यायालय में खड़ा हो और तर्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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