SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा नेत्र (२) दृष्टि से विचार करने की परम्परा थी। पर उस काल में दर्शन-शास्त्रियों ने योग को दर्शन नहीं माना। इसे दर्शन से अलग माना । दर्शन वस्तु-सत्य को जानने की दिशा के रूप में विकसित हुआ और योग साधना-पद्धति के रूप में माना जाने लगा। सांख्य का दार्शनिक पक्ष दर्शन कहलाता है और सांख्य की साधना-पद्धति योग दर्शन कहलाती है। दोनों को अलग-अलग बांट दिया। यह विभाजन उचित नहीं कहा जा सकता । वास्तव में दर्शन वही होता है जो हमारे समग्र जीवन की सच्चाईयों को प्रगट करता है। साधना का दर्शन ही यथार्थ में दर्शन होता है। परन्तु प्राचीनकाल में वस्तु-सत्य को जानने वाला ही दर्शन माना गया। इससे दर्शन बहुत सीमित हो गया। उससे सारा जीवन अछूता ही रह गया। जिस दर्शन का हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता, जिस दर्शन से हमारे वर्तमान जीवन की समस्याएं नहीं सलझतीं, वह दर्शन किसी आकाशवासी के काम का हो सकता है, धरती पर रहने वाले के लिए उपयोगी नहीं हो सकता । वह दर्शन किसी और काम का हो सकता है, मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। जो दर्शन समस्याओं को नहीं छूता, वह उपयोगी कैसे हो सकता है? जीवन की समस्याओं से कट कर वह दर्शन बड़ा दर्शन कैसे कहा जा सकता है ? वास्तव में पदार्थ का दर्शन जीवन का दर्शन नहीं हो सकता। भ्रम से उसको दर्शन मान लिया गया। यह ऐसा ही भ्रम है जैसा एक आदमी को हुआ था। एक आदमी ने अपने मित्र से कहा-भाई ! सूरज और चांद दो हैं। इन दोनों में चांद अधिक उपयोगी है, क्योंकि वह अंधेरे में उजाला करता है । सूरज का उपयोग ही क्या है? वह तो दिन में आता है। दिन में तो प्रकाश होता ही है। रात को अंधेरा होता है । चांद आता है । चांदनी से सारी भूमि प्रकाशित हो जाती है। इसलिए जो अंधेरे में प्रकाश फैलाता है, उसका उपयोग अधिक है। चांद अधिक उपयोगी ऐसा ही भ्रम दर्शन के क्षेत्र में हुआ है । दर्शन उपयोगी है, क्योंकि उससे पदार्थ का ज्ञान होता है, सृष्टि-रचना का ज्ञान होता है, आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। इसमें जीवन का प्रश्न छुआ नहीं गया । इसे अछूता ही रखा । पर उसे ही दर्शन मान लिया गया। यह ऐसी ही बात है—सूरज को क्या जानना, क्या देखना । रात को प्रकाशित करने वाला चांद ही उपयोगी है । सूरज का वर्तमान में कोई उपयोग नहीं है। दर्शन-क्षेत्र के इस भ्रम से अनेक अनर्थ हुए हैं। आज इस दृष्टि को बदलने की आवश्यकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy