SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा नेत्र (२) उलझ जाता है कि जितना संभवत: एक गृहस्थ भी अपने परिवार के प्रति आसक्त नहीं होता, उतना नहीं उलझता । विचारों के प्रति तटस्थ रहना सहज नहीं है। तटस्थता तब फलित होती है जब तीसरा नेत्र खुल जाता है। जब व्यवहार और निश्चय-इन दोनों का समन्वय करने वाला अनेकान्त घटित होता है तब तीसरा नेत्र खुलता है। अनेकान्त आए बिना तटस्थता नहीं आती। तटस्थता की संभाव्यता एक भाई ने पूछा-क्या तटस्थता संभव है ? अजीब प्रश्न है । क्या उत्तर दूं? इसे संभव कैसे कहूं और असंभव भी कैसे कहूं? जब तक अपने विचार के प्रति राग और दूसरों के विचार के प्रति द्वेष, अपने विचार का समर्थन और दूसरे के विचार का खंडन होता रहेगा तब तक तटस्थता सम्भव नहीं हो सकेगी। जब राग और द्वेष से परे, मण्डन और खण्डन से परे की प्रज्ञा जागृत हो जाती है तब तटस्थता सम्भव हो जाती है। दो नेत्रों के साथ-साथ तीसरा नेत्र भी खुल जाता है । इस प्रकार तटस्थता सम्भव भी है और असंभव भी है। ____एक घटना है। जनता ने राजा से शिकायत की आचार्य हेमचन्द्र महादेव को नमस्कार नहीं करते । राजा शिवभक्त था। आचार्य हेमचन्द्र को शिव मन्दिर ले जाया गया। राजा ने कहा-महाराज ! क्या आप महादेव को नमस्कार नहीं करते? आचार्य ने कहा-क्यों नहीं करता। तत्काल उन्होंने नमस्कार की मुद्रा में कहा __ "भवबीजांकुरजनना: रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य. ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हदो जिनो वा नमस्तस्मै ।।" अर्थात जन्म-मरण के दो बीज हैं-राग और द्वेष । ये दोनों जिसके समाप्त हो चुके हैं, उसका नाम चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो या जिन हो--उन सबको मेरा नमस्कार है। तीसरे नेत्र की प्रयोजनीयता जिसका तीसरा नेत्र खुल जाता है वह नाम में नहीं अटकता। वह अनाम की ओर चल पड़ता है। जिसका तीसरा नेत्र खल जाता है वह रूप में नहीं उलझता। उसकी यात्रा अरूप की ओर हो जाती है। जिसका तीसरा नेत्र नहीं खुलता, वही नाम-रूप में अटकता है, उलझता है। नाम और रूप-ये दोनों सभी धर्मों और दर्शनों को उलझाए हुए हैं। इनके जाल में फंसा व्यक्ति न आध्यात्मिक हो सकता है और न कोई साधना करने वाला साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy