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________________ अनेकान्त है तीसरा नेत्र आंख-तीसरी आंख खुल जाती है। उस स्थिति में पदार्थ पदार्थमात्र रहता है, न उसके प्रति प्रियता होती है और न उसके प्रति अप्रियता होती है, किन्तु तब समता होती है यही हमारी तीसरी आंख है । आचार-शास्त्रीय दृष्टि से तीसरी आंख हैसमता। तीसरी आंख : वैचारिक दृष्टि से वैचारिक दृष्टि से तीसरी आंख है-तटस्थता। एक विचारक एक दृष्टिकोण को पकड़कर उसका पक्ष करता है, समर्थन करता है, उसके प्रति राग करता है। दूसरा विचारक दूसरे का पक्ष करता है, समर्थन करता है। पहला विचार दूसरे का खण्डन करता है और दूसरा विचार पहले का खण्डन करता है। दोनों एक-दूसरे को प्रतिपक्षी मानते हैं, द्वेष की दृष्टि से देखते हैं। अपने विचार के प्रति राग और दूसरे के विचार के प्रति द्वेष, राग-द्वेष की ये दोनों आंखें अपना काम करती हैं। जब तक तटस्थता की दृष्टि नहीं जागती तब तक तीसरा नेत्र नहीं खुलता। जैसे ही तीसरा नेत्र खुलता है, अपना विचार छूट जाता है, पराया विचार भी छूट जाता है और शेष केवल सचाई रह जाती है, व्यक्ति पूर्ण तटस्थ हो जाता है। दृष्टिराग की प्रबलता आचार्य हेमचन्द्र ने एक श्लोक के माध्यम से मार्मिक बात कही है "कामरागस्नेहरागौ, ईषत्करनिवारणौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान, दुरच्छेदः सतामपि ॥" काम-वासना का राग और स्नेहराग—ये दोनों सरलता से मिटाए जा सकते हैं। पति और पत्नि के प्रति काम-वासना की आसक्ति होती है। माता का पुत्र के प्रति स्नेह का अनुबन्ध होता है। इन दोनों कामराग और स्नेहराग–को प्रयत्न करने पर मिटाया जा सकता है, किन्तु दृष्टिराग, अपने विचारों की अनुरक्ति को मिटा पाना सहज-सरल नहीं है। यह दृष्टिकोण का अनुराग अनेक अनर्थ उत्पन्न करता है। बड़े-बड़े लोग भी इसे नहीं छोड़ सकते । जिन्होंने घर-बार छोड़ दिया, जिन्होंने परिवार छोड़ दिया, माता-पिता का स्नेह और मित्रों का सम्बन्ध तोड़ दिया--सब कुछ तोड़ दिया, किन्तु वे भी विचारों के अनुराग को नहीं तोड़ पाए। वे उसमें उलझ गए। दृष्टि का अनुराग भयंकर पाश है, बंधन है। गृहस्थ का परिवार है---माता, पिता, पति, पलि, भाई, बहिन आदि । साधु का परिवार हैं-शास्त्र । साधु शास्त्रों के प्रति इतना आसक्त हो जाता है, उनमें इतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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