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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
उन्हें जप का प्रयोग करवाएं। प्राण-संयम का प्रयोग करवाएं। नाद का प्रयोग करवाए। जो व्यक्ति भ्रामरी प्राणायाम का सहारा लेता है वह धीरे-धीरे अपने ध्यान में चला जाता है। एक आसन में बैठकर साधक पांच-दस-पन्द्रह मिनट तक भ्रमर की तरह गुंजार करता रहे, धीरे-धीरे वह ध्यान की स्थिति में चला जाएगा।
सबके लिए एक ही उपाय कारगर नहीं होता। एक बात को पकड़कर नहीं बैठा जा सकता। सारा मताग्रह, सत्य के प्रति दुराग्रह-यह सब एकांगी-दृष्टि का परिणाम है।
महान् आचार्य भिक्षु ने एक मार्मिक पंक्ति लिखी—“बाप तलाई जाणने, खावे गार गिवार ।" मताग्रह से विरति है-अनेकान्त
एक आदमी पानी पी रहा था। तलाई में पानी कम और कीचड़ अधिक था। पानी के साथ कीचड़ आ रहा था, मिट्टी आ रही थी। वह उसे पीए जा रहा था। एक समझदार आदमी ने कहा-थोड़ी दूर पर एक तालाब है। पानी से भरा है। वहां जाओ और निर्मल पानी पीकर प्यास बुझाओ। यह कीचड़ क्यों पी रहे हो? उसने कहा—यह तलाई मेरे बाप की है। पानी पीऊंगा तो इसी तलाई का, अन्यथा प्यासा रह जाऊंगा।
यह मताग्रह है। यह इसलिए होता है कि आदमी की तीसरी आंख, सत्य को देखने की आंख खुली नहीं है। ... आज के युग की यह बहुत बड़ी अपेक्षा है कि व्यक्ति की तीसरी आंख खुले। वह तीसरी आंख है-अनेकान्त ।
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