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________________ समन्वय ___दोनों दर्शन दो सिराओं पर हैं। एक अचेतन को पकड़े हुए है और दूसरा चेतन को पकड़े हुए है। एक है अचेतनाद्वैत का सिरा और एक है चेतनाद्वैत का सिरा। न सर्वथा विरोध न सर्वथा अविरोध अनेकान्त ने दोनों के मध्य रहे हुए संबन्ध की खोज की और तीसरा नियम दिया कि चेतन और अचेतन में न सर्वथा विरोध है और न सर्वथा अविरोध है । हम नहीं कह सकते कि चेतन अचेतन का सर्वथा विरोध है और यह भी नहीं कह सकते कि अचेतन चेतन का सर्वथा विरोधी है। यदि वे सर्वथा विरोधी होते तो आत्मा अलग होती, शरीर अलग होता। आत्मा और शरीर दोनों इसीलिए जुड़े हुए हैं कि उनमें सर्वथा विरोध नहीं है । बहुत बार यह प्रश्न दार्शनिक जगत् में उभरता है कि अमूर्त आत्मा मूर्त शरीर के साथ कैसे जुड़ी? अमूर्त आत्मा मर्त कर्म के साथ कैसे जुड़ी? चेतन आत्मा अचेतन शरीर के साथ कैसे जुड़ो? यदि हम दोनों को सर्वथा विरोधी मान लें तो इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। यदि हम यह माने कि ये दोनों सर्वथा विरोधी नहीं हैं तो समाधान मिल सकता है । सर्वथा विरोध ही तो जुड़े नहीं रह सकते। पुत्र ने कहा—पिताजी ! आजसे आपके साथ भोजन नहीं करूंगा। मैं आपसे अलग होना चाहता हूं। पिता बोला—कोई कठिनाई नहीं है । इतने दिन तुम मेरे साथ भोजन करते थे। आज से मैं तुम्हारे साथ भोजन किया करूंगा। ऐसा ही है सम्बन्ध चेतन और अचेतन के बीच । दोनों कभी अलग नहीं होते, जुड़े हुए रहते हैं। दोनों एक दूसरे का पूरा उपयोग करते हैं। चेतन, अचेतन का उपयोग कर रहा है और अचेतन, चेतन का उपयोग कर रहा है। चेतन, अचेतन को टिकाए हुए है और अचेतन, चेतन को टिकाए हुए है। नियम यही है कि दोनों में सर्वथा विरोध नहीं है । दोनों में सर्वथा विलक्षणता नहीं है। दोनों में साम्य भी है। जितने भी वस्तु-धर्म हैं वे सब एक दूसरे की पूरकता में चल रहे हैं । केवल पर्यायों का भेद है। जब हम व्यक्त पर्यायों के आधार पर देखते हैं तो भेद दिखाई देता है, केवल भेद, भेद और भेद। जब हम अव्यक्त पर्यायों को देखते हैं तब अभेद दिखाई देता है, केवल अभेद, अभेद और अभेद । हमारा प्राणी-जगत् बहुत स्पष्ट है । प्राणी जगत् में वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पशु, मनुष्य आदि-भेद ही भेद दिखाई देता है, क्योंकि हम व्यक्त पर्याय को देखते हैं। जब हम अव्यक्त पर्याय को देखना प्रारम्भ करेंगे तब सारा उलट जाएगा, मिट जाएगा। केवल बचेगा चैतन्य । वह सब प्राणियों में समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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