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अनेकान्त है तीसरा नेत्र
उसका किसी के साथ स्पर्श नहीं हो सकता। “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" जिसने यह सूत्र दिया, उसने बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात दी। जितना सत्य पिण्ड में है, उतना ब्रह्माण्ड में है। जितना ब्रह्माण्ड में है. उतना पिण्ड में है।
बहुत विलक्षण है हमारा जीवन और बहुत विलक्षण है हमारा शरीर । इस शरीर में अनन्त सत्य छिपा हुआ है। स्थूलदृष्टि से लगता है--ये पैर हैं और ये आंखें हैं। यथार्थ में ये दो कहां हैं? यदि वास्तव में ये दो हों तो आयुर्वेद के आचार्यों का यह कथन मिथ्या हो जाता कि यदि आंख बीमार हो तो पैर की अंगुलियों पर दवा लगाओ। आंख ठीक हो जाएगी । बहुत विचित्र लगता है यह कथन । किन्तु यह यथार्थ से परे नहीं है । मुंह पर जैसे आंखें हैं, वैसे ही पैरों में भी हैं। पिच्युटरी ग्लैण्ड यदि भृकुटि के बीच में है तो वह पैर के अंगूठे में भी है। जितने ग्लैण्ड या अन्य अवयव ऊपर हैं, उतने ही नीचे पैरों में हैं। आज ये सब विज्ञान द्वारा सम्मत हैं। सारा शरीर एक है जुड़ा हुआ है। इसी सिद्धान्त के फलस्वरूप एक्यूपंक्चर और एक्यूप्रेसर चिकित्सा प्रणालियों का विकास हुआ है। समूचे शरीर में संवादी अंग हैं। पैर का दर्द है, रीढ़ की हड्डी को दबाओ, वह दर्द मिट जायेगा। पैर के अंगूठे को दबाते ही सिरदर्द मिट जाता है । दबाने की विधि होती है, उसका ज्ञान आवश्यक
द्वैत और अद्वैत
साथ जुड़ा हुआ है, अलग कुछ भी नहीं है। बाहर भिन्न दीखता है, भीतर में सारा जुड़ा हुआ है। अनेकता के नीचे छिपी हुई एकता को हम नहीं जानते । इसी प्रकार एकता के नीचे छिपी हुई अनेकता को भी हम नहीं जानते। हमारी दृष्टियां एकांगी हैं, बंटी हुई हैं। इसीलिए दर्शन के क्षेत्र में अद्वैत का विकास हुआ, तो द्वैत का भी विकास हुआ। एक सिद्धान्त यह आया कि सब कुछ एक है, दो है ही नहीं। बिल्कुल अद्वैत । अद्वैत भी दो प्रकार का हो गया। एक है चार्वाक का अद्वैत और दूसरा है वेदान्त का अद्वैत । एक का दर्शन है कि अचेतन है, चेतन कुछ भी नहीं है। अचेतन से चेतन उत्पन्न होता है । नास्तिकों की यही घोषणा है कि चेतन वास्तविक नहीं है । मूल तत्त्व है अचेतन । केवल परमाणु, केवल पुद्गल । उससे चेतन पैदा होता है। अचेतन की ऐसी संरचना होती है कि उसमें से चेतन पैदा हो जाता है। जड़ाद्वैत या अचेतनाद्वैत ।
दूसरा दर्शन है कि चेतन है, अचेतन कुछ भी नहीं है । चेतन से अचेतन उत्पन्न होता है। यह है ब्रह्माद्वैत या चेतनाद्वैत ।
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