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________________ २८ अनेकान्त है तीसरा नेत्र मनुष्य व्यक्त के धरातल पर जीता है, इसलिए जो पर्याय वर्तमान की सीमा में व्यक्त होता है, उस पर्याय के आधार पर वह अपनी धारणा बना लेता है । ममकार जुड़ता है और वह कहता है-यह मेरा है । क्यों माना कि यह मेरा है? क्या यह सत्य है ? कैसे कहा जा सकता है कि यह मेरा है । जिसे मैं मेरा कहता हूं, वह मेरा शत्रु है। जिसे मेरा नहीं मानता, पराया मानता हूं वह मेरा मित्र है। जिसे मेरा मानता हूं, उसमें शत्रु छिपा बैठा है और जिसे पराया मानता हूं, उसमें मित्र छिपा बैठा है। दोनों को नहीं देख पा रहा हूं। दृष्टि-विपर्यास आदमी ने दो खेमे बना लिए हैं—एक है अपनों का खेमा, मित्रों का खेमा और दूसरा है परायों का खेमा, शत्रुओं का खेमा। आदमी अनादिकाल से धोखा खाता चला जा रहा है। जितना धोखा 'अपनों' के द्वारा होता है उतना धोखा 'परायों के द्वारा नहीं होता। फिर भी आदमी अपना मानता चला जा रहा है और इसलिए मानता चला जा रहा है कि वह व्यक्त पर्याय में ही विश्वास करता है, स्थूल पर्याय में ही विश्वास करता है। वर्तमान क्षण में हित करने वाले को मित्र और अहित करने वाले को शत्रु मान लेता है । जबकि होता यह है कि मित्रता की बात करने वाले भी यथार्थ में शत्रु का काम कर लेते हैं। माता-पिता अपने लड़के से कहते हैं-शराब मत पीओ, व्यवसनों से दूर रहो, बुरे आचरणों में मत फंसो, बुरों की संगत मत करो। लड़का मानता है-ये मेरे शत्रु हैं । परन्तु जो कहता है-चलो, नाइट-क्लब में चलें, शराब पीएं, मौज करें, उसे वह मित्र लगने लगता है । यह दृष्टि का विपर्यास है। दृष्टि परिवर्तन का हेतु अनेकान्त जीवन की एक प्रशस्त पद्धति है। उस पद्धति का प्रारम्भ होता है दृष्टि-परिवर्तन द्वारा। दृष्टि जब सम्यक् नहीं होती तब हमारी धारणाएं सूक्ष्म और स्थूल दोनों जगत् द्वारा छनकर नहीं आतीं। जब तक हमारा ज्ञान व्यक्त और अव्यक्तदोनों पर्यायों के समन्वय से नहीं होता तब तक हम सही निर्णय नहीं ले पाते और आपदाओं से बचना तब सम्भव नहीं होता। वस्तु का स्वभाव बहुत बड़ा सत्य है । इसकी हम अवहेलना न करें। उसे समझने का प्रयत्न करें। कोई भी व्यक्ति वस्तु-सत्यों को उलटकर, उन नियमों के विपरीत चलकर सुखी नहीं बन सकता । सुखी और शांत जीवन वही जी सकता है जो वस्तु-सत्यों को मानकर चलता है, न कि अपनी धारणाओं के अनुसार सत्य को टालने का प्रयत्न करता है। प्राय: होता यह है कि -मनुष्य वैसा बनना नहीं चाहता किन्तु आदर्श को अपने अनुकूल ढालने का प्रयत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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