SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सह-अस्तित्व सकते हैं. दोनों जी सकते हैं। दोनों को जीने का अधिकार प्राप्त है। इस सह-अस्तित्व की नीति के आधार पर राष्ट्रसंघ जैसे संगठनों में, जहां समाजवादी संगठन का प्रतिनिधित्व होता है तो वहां पूंजीवादी संगठन का भी प्रतिनिधित्व होता है। जहां लोकतंत्र की प्रणाली में जीने का प्रतिनिधित्व है, वहां एकतंत्र का भी प्रतिनिधित्व है । सह-अस्तित्व की घोषणा राजनीति के क्षेत्र में नई है, किन्तु प्राकृतक नियमों के आधार पर यह बहुत प्राचीन है। यह कोई नयी बात नहीं है। बनना, बिगड़ना-बनना, बिगड़ना-यह पुराना क्रम है। . हमारे शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं। प्रति सेकेण्ड पांच करोड़ कोशिकाएं नष्ट होती हैं और पांच करोड़ कोशिकाएं उत्पन्न होती हैं । यह सह-अस्तित्व बना रहता है। जन्मना और मरना, पैदा होना और नष्ट होना। कोशिकाएं नष्ट न हों तो शरीर मुर्दा बन जाता है। कोशिकाएं पैदा न हों तो शरीर टूट जाता है। दोनों चालू रहते हैं तब शरीर टिकता है। जीना और मरना दोनों विरोधी हैं, किन्तु दोनों साथ-साथ रहते हैं, साथ-साथ चलते हैं। जिस क्षण में आदमी जीता है, उसी क्षण में आदमी मरता है और जिस क्षण मे आदमी मरता है, उसी क्षण में आदमी जीता है। जीवन और मरण की ये विरोधी घटनाएं साथ-साथ चलती हैं। कोई उसमें कालक्रम नहीं है कि अमुक क्षण में आदमी जीता है और अमुक क्षण में आदमी मरता है। जीना और मरना साथ-साथ चलता है। जो जीने का क्षण है, वही मरने का क्षण है और जो मरने का क्षण है वही जीने का क्षण है। दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सह-अस्तित्व स्वयंभू नियम है विरोधी होना स्वाभिवक है। विरोधी युगलों का अस्तित्व प्राकृतिक है । इनका सह-अस्तित्व भी स्वाभाविक है, नैसर्गिक है। किसी ने यह नियम बनाया नहीं, यह स्वयंभू है। कोई भी महापुरुष या मनस्वी , ऋषि या तीर्थंकर नियम नहीं बनाता। वह नियमों की व्याख्या करता है। वह नियमों में छिपे रहस्यों का उदघाटन करता है। प्रकृति के नियमों का सर्जन करना किसी के हाथ में नहीं है। कोई भी व्यक्ति आचार-व्यवहार के नियम बना सकता है, खान-पान के नियम बना सकता है, पर कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली या मेधावी क्यों न हो, प्रकृति के नियमों का सर्जक नहीं हो सकता। प्राकृतिक नियम नैसर्गिक होते हैं, स्वाभाविक होते हैं। सह-अस्तित्व का नियम भी स्वाभाविक है । द्वन्द्वात्मक जीवन का होना, विरोधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy