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सह-अस्तित्व
तब उन्हें प्रतिकण का पता चला। आज यह सिद्धान्त प्रतिष्ठापित हो चुका है कि प्रतिकण के बिना कण का अस्तित्व नहीं हो सकता। दोनों का होना अनिवार्य है। अनेकान्त का मूल आधार है-विरोधी के अस्तित्व की स्वीकृति, प्रतिपक्ष की स्वीकृत। इस स्वीकृति से ही अनेकान्त का विकास होता है । अनेकान्त कहता है-सत्य को एक दृष्टि से मत देखो। सत्य को अस्तित्व की दृष्टि से देखते हो तो साथ-साथ उसे नास्तित्व की दृष्टि से भी देखो । स्वीकृति के साथ अस्वकृति दोनों साथ-साथ चलनी चाहिए। एक से काम नहीं चलता। हमारे जीवन का पूरा व्यवहार, समाज का सारा व्यवहार, इन विरोधी तत्त्वों की ईंटों से बना है । यदि ये विरोधी ईंटें न हों तो न कोई व्यवहार बनता और न कोई आचार बनता। विरोधी चाह, विरोधी आकांक्षा और विरोधी मांग सामने आती है। एक आदमी एक प्रकार से सोचता है तो दूसरा आदमी दूसरे प्रकार से सोचता है, उससे बिल्कुल उलटा सोचता है। एक आदमी को एक कार्य लाभप्रद प्रतीत होता है तो दूसरे को वही कार्य पतन की ओर ले जाने वाला लगता है। एक उसे उपयोगी मानता है तो दूसरा उसे सर्वथा अनुपयोगी मानता है। एक ही पदार्थ के विषय में नाना विरोधी धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक है। इसमें अस्वाभाविक जैसा कुछ भी नहीं है। विरोधी हित . एक कुम्हार था । उसके दो पुत्रियां थीं। एक का विवाह किसान के घर में हुआ
और दूसरी का विवाह कुम्हार के घर में । दोनों प्रसन्न थीं। एक बार कुम्हार पुत्रियों से मिलने गया। दोनों एक ही गांव में थीं। वह किसान के घर ब्याही पुत्री के पास पहुंचा। कुशल-क्षेम पूछा-बेटी को उदास देखकर बोला-बेटी ! उदास क्यों है? बेटी ने कहा—'पिताजी? खेती का समय आ गया है । वर्षा हो नहीं रही है । आकाश में कहीं बादल नजर नहीं आते । बड़ी कठिनाई हो जाएगी, यदि वर्षा नहीं होगी तो। यही चिन्ता सता रही है। जल्दी से वर्षा हो जाए तो अच्छा है। आप प्रभु से वर्षा की प्रार्थना करें।' ____ कुम्हार वहां से चला और दूसरी बेटी के घर पहुंचा। कुशल-क्षेम पूछी। बेटी बोली-'पिताजी ! और तो सब ठीक है । वर्षा का मौसम है। आवा अभी पक रहा है। सारे बर्तन आवे में डाले हुए हैं। यदि वर्षा हो गई तो आवा गुड़-गोबर हो जाएगा। पिताजी ! आप प्रभु से प्रार्थना करें कि वर्षा न हो, वर्षा न हो अभी । जब तक हमारा आवा पक न जाए, तब तक वर्षा न हो।'
कुम्हार ने सोचा-वर्षा होने की प्रार्थना करूं या न होने की प्रार्थना करूं?
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