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________________ १५२ अनेकान्त है तीसरा नत्र आपका ! घर छोड़ दिया, परिवार का त्याग कर दिया, सारी सम्पदा को ठोकर मार दी, कितना महान् त्याग !' राजा स्तुति करता रहा। संन्यासी बोला—महाराज ! व्यर्थ ही स्तुति मत करो। त्यागी मैं हूं या तुम? त्याग मेरा बड़ा है या तुम्हारा? तुम्हारा त्याग बड़ा है। राजा आश्चर्य में पड़ गया। बोला–महाराज मैं कैसा त्यागी? इतने वैभव, इतनी सम्पदा और सुख का मैं भोग कर रहा हूं। निरन्तर भोग में बैठा हूं। कहां है मेरा त्याग? कैसा है मेरा त्याग? संन्यासी ने कहा-मैंने जो कहा वह सच है। तुम्हारा त्याग मेरे त्याग से बड़ा है। सुनो, इसका कारण ! मेरे सामने मोक्ष का सुख है। मेरे सामने परमात्मा का परमसुख है। इतना बड़ा सुख है ! सबसे महान् सुख है। इस सुख की प्राप्ति के लिए मैंने थोड़ा-सा धन का सुख छोड़ा, परिवार और सम्पदा का सुख छोड़ा है। किन्तु तुम बड़े त्यागी हो। उस महान् मोक्ष और परमात्मा के सुख को छोड़कर धन के छोटे-से सुख में फंसे हो । अब बताओ, बड़े सुख को तुमने छोड़ा है या मैंने? बताओ, बड़े त्यागी तुम हो या मैं ? दो मार्ग बहुत स्पष्ट हैं। एक मार्ग है-थोड़े के लिए बहुत को छोड़ने का। दूसरा मार्ग है—बहुत के लिए थोड़े को छोड़ने का। यह पदार्थ का रास्ता, जिसे आज की भाषा में आशावादी दृष्टिकोण कहा जाता है, थोड़े के लिए बहुत को छोड़ने का रास्ता है, बहुत को छोड़ देना और थोड़े के रास्ते पर चल पड़ना। दूसरा रास्ता है शान्ति का जो बहुत के लिए थोड़े को छोड़ने का रास्ता है। थोड़े को छोड़ देना और बहुत के मार्ग पर चल पड़ना। शान्ति का मार्ग निराशा का मार्ग नहीं शान्ति का मार्ग कभी निराशा का मार्ग नहीं हो सकता। यह वास्तव में निराशा का मार्ग नहीं है। यह तो बहुत आशा का मार्ग है मनुष्य अनन्त आशा को लेकर चलता है कि मैं परमात्मा बन जाऊं। यह कोई छोटी आशा या भावना नहीं है। बहुत बड़ी भावना है मैं परमात्मा बन जाऊं। यदि कोई कहे-मैं आचार्य तुलसी बन जाऊं तो लगेगा कि यह अंह की भाषा बोल रहा है। यदि कोई चाहे-राजा बन जाऊं, प्रधानमंत्री या मंत्री बन जाऊं तो लगेगा कि अहंकार और आकांक्षा की भाषा में सोच रहा है । कोई व्यक्ति चाहे-मैं परमात्मा बन जाऊं तो किसी को आपत्ति नहीं होगी । कोई नहीं कहेगा कि वह अहंकारी आदमी है, महत्वाकांक्षी है । यह बहुत .-बड़ा पद है परमात्मा बनना, उसकी चाह करो, कोई आपत्ति नहीं होगी। छोटे पद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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