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________________ १५० अनेकान्त है तीसरा नेत्र के लोग अपेक्षा रखते हैं। उन्होंने ध्यान क्यों नहीं दिया? इस पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा। उन्होंने ध्यान इसलिए नहीं दिया कि भारत की सभ्यता बहुत पुरानी है, संस्कृति बहुत प्राचीन है। भारतीय विकास का इतिहास बहुत पुराना है। यहां के लोग एक समय, सभ्यता और संस्कृति में तथा अन्यान्य विकासों में ऊंचे शिखिर पर पहुंच चुके थे। वहां पहुंचने के पश्चात् उन्होंने अनुभव किया कि अब रास्ता बन्द है । अब आगे जाने का कोई मार्ग नहीं है। चोटी पर पहुंचने वाला और आगे कहां जा पाएगा? पहाड़ की तलहटी या बीच में हो तो आगे जाने का रास्ता रहता है। चोटी पर पहुंचने पर दो विकल्प शेष रहते हैं—या तो वह चोटी पर खड़ा रहे या फिर नीचे उतर आए। चोटी पर कोई खड़ा रह नहीं सकता। लम्बे समय तक वहां रहने का अवकाश नहीं रहता। उसे नीचे आना ही होता है। भारतीय लोग सभ्यता, संस्कृति और विकास की चोटी पर पहंच गए थे। वहां जाकर उन्होंने अनुभव किया कि अब आगे का रास्ता बन्द है, नया रास्ता खोजना होगा, नया आयाम खोजना होगा। उन्होंने अनुभव किया कि पदार्थ-विकास के शिखर पर पहंचने पर यह स्पष्ट अनुभूति हो गई कि मिला कुछ भी नहीं। पहले यह आशा थी कि चोटी पर जाएंगे, वहां कुछ अवश्य ही मिलेगा। पर वहां मिला कुछ भी नहीं। खाली खड़े-खड़े वहां क्या करें, वहां ऐसा कुछ भी नहीं मिला कि उसके आकर्षण से प्रतिबद्ध होकर वहीं खड़े रहें। नीचे जाने का रास्ता था, पर उन्होंने नीचे जाना स्वीकार नहीं किया, दूसरा रास्ता चुना। इस दूसरे रास्ते को आज के दार्शनिक निराशावाद का दृष्टिकोण कहते हैं। इस चिन्तन से हमारी सहमति नहीं हो सकती । पदार्थ के प्रति यदि जानना ही आशावादी दृष्टिकोण है तो मान लेना चाहिए कि मनुष्य को इस संसार में शान्ति से जीने का कोई अधिकार ही नहीं है। दो मार्ग दो रास्ते हैं। एक रास्ता है सुख-सुविधा का और दूसरा रास्ता है शान्ति का। एक रास्ता है अनन्त और दूसरा है ससीम । शान्ति का रास्ता अनन्त है और पदार्थ का रास्ता ससीम। कोई भी आदमी पदार्थ-विकास में अनन्त यात्रा नहीं कर सकता। शान्ति के विकास में आदमी अनन्त यात्रा कर सकता है। उसमें अनन्तकाल तक चल सकता है। कहीं भी उसे हटने या मुड़ने की आवश्यता नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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