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परिवर्तन
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'क्या करोगी?' 'मुझे मनुष्यों को मारना है।' 'कितने मनुष्यों को मारोगी' 'दस हजार ।' कन्फ्यूशियस इतना सुनकर आगे बढ़ गया।
कुछ दिन बीते । एक दिन कन्फ्यूशियस घूमने जा रहा था। सामने से वही प्लेग घोड़े पर बैठ कर आ रही थी। कन्फ्यूशियस बोला—तुमने असत्य क्यों कहा कि.दस हजार मनुष्यों को ही मारूंगी। प्लेग बोली-महाशय ! मैंने असत्य नहीं कहा। कन्फ्यूशियस ने कहा-सिंगाई नगर में पचास हजार आदमी मरे हैं, दस हजार नहीं। प्लेग बोली–मैंने तो दस हजार ही मारे थे। शेष चालीस हजार भय से मर गए। मैं इसका क्या करती।'
भय आदि सारे हमारे जीवन के अन्तर पर्याय हैं। इन पर्यायों को हमें जानना है, इन्हें बदलना है।
कैसे बदलें-यह एक प्रश्न है। बदलने का मूल सूत्र क्या है ? जो पर्याय हमारे जीवन का विघ्न है, जो पर्याय हमें दुःख दे रहा है, उसे कैसे बदलें और नए पर्यायों को कैसे अभिव्यक्त करें, यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्व का है।
___ जैसे-जैसे हमारे स्वाभाविक पर्याय अभिव्यक्त होते हैं वैसे-वैसे ये दुःख देने वाले पर्याय समाप्त होते जाते हैं और जैसे-जैसे स्वाभाविक पर्याय तिरोहित होते हैं, वैसे-वैसे वैभाविक पर्याय प्रकट होते हैं। साधना का सूत्र-देखो जानो
अनेकान्त की दृष्टि से साधना का या अपने स्वाभाविक पर्याय को प्रगट करने का सबसे बड़ा सूत्र है-जानो-देखो, जानो-देखो, देखो-जानो । बस, इसके अतिरिक्त कोई साधना नहीं है। आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, आखें बन्द करना, दीर्घश्वास लेना—ये सब व्यर्थ हैं। इनके चक्कर में न पड़ें। इनमें कोई सार नही है। एकाग्रता भी व्यर्थ है ? किस काम की एकाग्रता? क्या सेंध लगाने वाला चोर कम एकाग्र होता है? क्या तीरंदाज कम एकाग्र होता है? क्या बगुला मछली पकड़ते समय एकाग्र नहीं होता? गोली चलाने वाला क्या एकाग्र नहीं होता? ये सब बातें जानने के साथ जुड़ती हैं तब काम की बनती हैं और भोगने के साथ जुड़ती हैं तो दुःख देने वाली बनती जाती हैं। दो स्पष्ट रेखाएं हैं- एक है जानने की रेखा और
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