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________________ सन्तुलन १२७ द्वन्द्व की दुनिया में एक से काम नहीं चलता। आदमी का स्वभाव है कि वह एक बात पर अधिक बल देता है और दूसरी बात को गौण कर देता है। यह तब होता है जब वह अपने प्रति नहीं जागता, अपने आपको नहीं जानता। जब तक अपने आपको नहीं जानता, अपने प्रति नहीं जागता, व्यवहार को जानता है और व्यवहार के प्रति जागता है, तब तक इस नियम को कभी नहीं लांघा जा सकता । हमारी एक भूमिका है जहां संयम और समता सिद्ध होती है। संयम और समता के सिद्ध होने पर दूसरा नियम लागू हो जाता है। सर्व सर्वात्मकं-अनेकान्त को अमान्य सभी नियम सापेक्ष होते हैं। कोई भी नियम निरपेक्ष नहीं होते। उसकी भी एक सीमा होती है। किसी भी नियम का एक-छत्र शासन नहीं होता। सब कुछ सीमित है। धर्म और ध्यान को हम महत्त्व देते हैं और कह देते है कि इनसे समस्याएं समाहित हो जाएंगी। यह भ्रान्त है । न धर्म के द्वारा सारी समस्याएं समाहित होती हैं और न ध्यान के द्वारा। उसकी उपयोगिता अपनी-अपनी सीमा में है। धन की समस्या ध्यान से नहीं सुलझ सकती। धर्म से खेती या अर्थ की समस्या नहीं सुलझ सकती। ध्यान से या धर्म से सब कुछ हो जाएगा, यह भ्रान्तभरी धारणा है। हम मर्यादाओं को न भूलें । प्रत्येक की अपनी-अपनी मर्यादा है। यही अनेकान्त का मंत्र है । सीमा-बोध बहुत आवश्यक होता है । ध्यान के द्वारा समस्याएं सुलझती है, किन्तु वे ही समस्याएं सुलझती हैं जो ध्यान की सीमा में आती हैं। बड़े से बड़े ध्यानी को भी खाना पड़ता है, पानी पीना पड़ता है। कपड़े पहनने पड़ते हैं। समय पर औषधियां लेना पड़ती हैं। प्रसंगवश बता दूं कि आयुर्वेद का विकास क्यों हुआ? बहुत बड़ी एक घटना है। एक बार हिमालय की गोद में तपस्या करने वाले अनेक तपस्वी बीमार हो गए। प्रश्न उठा-सब संयमी हैं, ब्रह्मचारी हैं, तपस्वी हैं, फिर रोग क्यों? कारण की खोज प्रारम्भ हई। ऋषियों की सभा हई। भारद्वाज ऋषि को कहा गया-इन्द्र के पास जाकर इस बीमारी का कारण पूछो। भारद्वाज ऋषि इन्द्र के पास गए। इन्द्र के सामने समस्या रखी और समाधान लाए। कोई भी बात एकांगी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं होती। यह कभी न माना जाए कि ध्यान से सारी बीमारियां मिट जाती हैं। हम सीमा को समझें। यह निश्चित है कि ध्यान के द्वारा मन की सारी बीमारियां मिट सकती हैं। कषाय से उत्पन्न सारे रोग नष्ट हो जाते हैं। जब कषाय की बीमारी मिटती है तब मन की बीमारी भी समाप्त हो जाती है। जब मन की बीमारी समाप्त होती है तब मन की बीमारी से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001373
Book TitleAnekanta hai Tisra Netra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Discourse
File Size8 MB
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