________________
.१००
अनेकान्त है तीसरा नेत्र
अनेकान्त है समस्याओं का समाधान
आचार्यश्री ने कहा था-मुझे सम्मान मिलता है तो मैं फूलता नहीं और अपमान मिलता है तो कुंठित नहीं होता। मुझे प्रशंसा भी खूब मिली और निन्दा का शिकार भी मुझे होना पड़ा। मैं दोनों में सन्तुलन रखता हूं। सम्मान में फूलता नहीं और निन्दा में सिकुड़ता नहीं। यह है संतुलन ।
जब उभयात्मक दृष्टि बनती है तब सापेक्षता का विकास होता है और अनेकान्त की तीसरी आंख खुल जाती है। इससे जीवन-व्यवहार स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण होता है। उससे अनन्त संभावनाओं का द्वार खुला रहता है।
हम यह स्पष्ट अनुभव करें कि अस्तित्व और नास्तित्व—दोनों का स्वीकार उलझने वाली बात नहीं है। प्रत्येक पदार्थ या तत्त्व का अपनी सीमा में अस्तित्व होता है। जहां अपनी सीमा पूरी हो जाती है, उसका नास्तित्व भी साथ-साथ होता है-अस्तित्व और नास्तित्व, स्वतंत्रता और परतंत्रता-दोनों का समाधान सापेक्षता के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
एक योगी था, तपस्वी था। जटा उलझ गई। वह कंघी लेकर उसे सुलझाने बैठा। कंघियां टूटती गईं। जटा नहीं सुलझी। भक्त ने कहा-महाराज ! यह जटा जोगी की है। यह कंघियों से नहीं सुलझेगी। यह सुलझेगी उस्तरे से। ___अनेकान्त उस्तरा है । वह जोगी की जटा की भांति उलझी हुई समस्त समस्याओं को सुलझा देता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org