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'खं १' प्रति
यह प्रति खम्भात के श्री शान्तिनाथजी ताडपत्रीय जैनभण्डार में सुरक्षित है । प्राच्यविद्यामन्दिर बडौदा से प्रकाशित इस भण्डार की सूची में इसका क्रमाङ्क २१४ है । ताडपत्र पर लिखी हुई इस प्रति के कुछ १८३ पत्र है । समग्र प्रति के मध्यभाग के नीचे का भाग तथा एक तरफ की किनारी का भाग चूहे ने काट डाला है । अन्त के कतिपय पत्र जीर्ण अवस्थावाले हैं । १७८ वें पत्र का अर्द्धभाग नष्ट हो गया है । प्रति की स्थिति जीर्ण है । इसकी लिपि सुन्दर एवं सुवाच्य है । इसकी लम्बाई चौडाई २८.७४२.५ इंच की है । १८२ वें पत्र के प्रथम पृष्ठ की अन्तिमपंक्ति में 'पुहइचंदचरिय' समाप्त होने के बाद प्रस्तुत प्रति को लिखानेवाले की प्रशस्ति का प्रारंभ होता है । और १८३ वें पत्र के सम्पूर्ण प्रथम पृष्ठ में प्रशस्ति की समाप्ति होती है। इस प्रति के लेखक ने जिस प्रति के उपर से नकल की है उस प्रति के लेखक की भी प्रशस्ति इस प्रति में लिखी है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत प्रति के लेखक ने जिस प्रति पर से इसकी नकल की है वह आ० श्री शान्तिसूरिजी ने जिनकी प्रार्थना से पुहइचंदचरिय की रचना की थी उन मुनिचन्द्रमुनि के द्वारा लिखी हुई प्रति पर से इसकी नकल की है अर्थात् ग्रन्थकार के शिष्य मुनिचंद्रमुनि द्वारा लिखी गई प्रति की परम्परावाली प्रति पर से की है । उपरोक्त दो प्रशस्तियों में से ग्रन्थकार के शिष्य श्री मुनिचन्द्रमुनि द्वारा लिखी गई दो पद्योंवाली प्रशस्ति इस प्रकार है—
भव्याम्भोरुभाभिर्भवमहीभृच्छेददम्भोलिभिर्मोहानो कह मातरिश्वभिरलं शोलामृताम्भोधिभिः । विश्वे विश्वकोन्द्रचक्रति कैनों केवलं नाम्ना (नामभि) बि (त्रि) भ्राणैर्मनसा च (शान्ति) मतुलां चारित्रिणां नायकैः ॥ १ ॥ पूज्यैर्निजैर्दलितदर्पक कार्मु रुभ्यैर्योऽचीकरत् कृतनतिश्चरणारविन्दे । पृथ्वी विधोश्चरितमुत्तममेतदा तेनैव चारुमुनिचन्द्रमसा व्यलेखि॥२॥ अर्थात् भव्यजनरूपी कमल के लिए (विकसित करने में ) सूर्य के समान, भवरूपी पर्वत के लिए ( तोडने में) वज्र के समान, मोहरूपी वृक्ष के लिए ( छेदने में ) कुल्हाडी के समान, शीलरूपी अमृत के सागर, जगत् के श्रेष्ठ कवियों के समूह में तिलक समान, मुनियों के नायक, कामविजेता, पूज्य और केवल नाम मात्र से ही नहीं किन्तु मन से भी शान्ति धारण करनेवाले ऐसे आचार्य शान्तिसूरि के चरणारविन्द में वन्दन कर जिसने यह सुन्दर 'पृथ्वीचन्द्रचरित्र' रचाया उन मुनिचन्द्र मुनि ने यह [ प्रति ] लिखी है ।
ग्रन्थकार आचार्य शान्तिसूरिबी ने 'पुहइचंदचरिय' के अन्त में ( पृ० २२२ गा० २८९ ) यह बताया है कि " शिष्य सुनिचन्द्र के वचन से मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है।" इसी बात का निर्देश ' खं०' १ प्रति के लेखक के द्वारा लिखि गई मुनिचंद्रमुनि की प्रशस्ति में मिलता है ।
‘खं १ ' प्रति के लेखक की अपनी खुद की प्रशस्ति इस प्रकार है
"वन्नड्ढो वरपत्तपत्तसहिओ साहाभिरामो सया, सच्छाओ गुरुपब्बसंनइजुओ आबद्धमूलो भुवि । उत्तुंगो फल साउणेगकलिओ पक्खी - (ण) संवासओ, विक्खाओ सिरिभिल्लमालवणओ वंसोऽत्थि वंसोवमो ॥ १ ॥ वंसे तम्मि पवित्तवित्तकलिओ मुत्ताहलं वाऽमलो, उप्पन्नो वरसेयकित्तिनिलभ लोयाण संतोसओ । दाणादि साहु - सावयजणो दीणेसु कंपावरो, सिद्धू णेगमवल्लहो य पवरो सिट्ठी पसिद्धो जणे ॥ २ ॥ गुजरबि - (ल) याहरणे घण-कणय समिद्धिसंपयाकलिए । गामे समभिहाणे जेगा जम्मम्मि संवसियं ॥ ३ ॥
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