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________________ । ४८० ] सिरिचंदावरइयउ [ ४७. १५. ३गुरुभासिउ जेहिँ न तं गणिउ | लइ एउ जे चारु तेहिँ भणिउ । मूढहिँ नियतित्थु पसिधु निउ जिणकप्पु जे विहिँ भेएहिँ किउ । पडिवज्जिउ जेहिँ तेहिँ विहिउ । विरइयपच्छित्तहिँ अप्पहिउ । ५ सहँ तेहिँ तो हयदुच्चरिया रामिल्लथूलथेरायरिया । विहरंत संत संपत्त तहिं लहुभद्दबाहु रिसि वसइ जहिं । तेण वि ते एंत निएवि तउ उ?विणु अब्भुत्थाणु कउ ।। वंदिय परिवाडिए धम्मधणा उवविट्ठ सिलायलेसु सवणा । पुच्छंतहँ अक्खिउ जेम गुरु संपत्तु समाहिए सग्गपुरु। हउँ पुण एकल्लउ किं करमि अमुणंतु मग्गु कहिँ संभरमि। घत्ता-तप्पहूइ पहु तुम्ह नियंतउ अच्छमि गुरु निसिहिय सेवंतउ । एत्थु जे वसइ नयरु दूरंतरे भुंजमि तहिँ भव्वयणनिरंतर ॥१५॥ इय कहेवि सव्वु जाणेवि समउ भामरिहे साहु सो लेवि गउ । पच्छग हुउ ताहँ कहेवि पहु केमग्गः गच्छइ सव्वलहु । गय दूर तो वि न नियंति पुरु पy पुरउ होहि पभणंति गुरु । कहिँ तं तउ पुरवरु' पउरजणु ताणाणा थिउ अग्गए सवणु । तो तक्खणे जणमणनयणपिउ वणदेविश पट्टणु निम्मविउ । तहिँ घरे घरे दावियधम्मदिसी पडिगाहिय भव्वयर्णहिँ रिसी। भुंजेप्पिणु ठायो सव्व गया अंतर चिक्खिल्लें लित्तपया । चउरंगुलरिद्धिपहावधरा न वि तासु परेको पावहरा । मुणिचट्ट एक्कु घर जिमिउ जहिं वीसरेवि कमंडलु आउ तहिं । गुरुवयणे जाम जाइ तुरिउ ता तत्थ ण पुरु संपयभरिउ। १० पर दिठ्ठ कमंडलु आलइउ महुडालहे विभिएण लइउ । आवेप्पिणु वइवरु वज्जरिउ सव्वेहिँ वि जाणिउ सच्चरिउ । घत्ता-निच्छउ एहु रिद्धिसंपन्नउ महरिसि दूरोसारियदुन्नउ । पेच्छह तेण सोक्खु संपज्जइ निज्जणु वणु वि नयरु संपज्जइ ।।१६।। १७ अवरु वि मुहि प्रबि अत्थि चरिया फुडु तेण न पय पंकहो भरिया ।। जेणम्हइँ तेण जे आइयउ मग्गेण एहु गुणराइयउ । १६. १ कहि तं तेउ पुररु । न पालइउ .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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