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१७. ५. ५.
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कहकोसु
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अवधारिऊण एयं मणम्मि
थिउ सुत्तकंठु एक्कहिँ दिणम्मि । वरपव्वसंधिवड्ढिय महंत
दठूण वेणु ते थरहरंत । छिदेप्पिणु लेप्पिणु जाइ जाम
करकंडुकुमारे दिलृ ताम। भेसाविउ कड्ढिवि खग्गधेणु
उद्दालेवि तिन्नि वि लइय वेणु । पेच्छिवि सुहलक्खणलक्खियंगु
दुव्वारवइरिकयमाणभंगु। उवएसिउ जो मुणिणा मणोज्जु
भूवलए करेसइ सयलु रज्जु । एसो सो रंजियजणमणाइँ
सामन्नहो एइँ न लक्खणाइँ । चितेवि एउ विणएण वुत्तु
विप्पें पोमावइदेविपुत्तु । घत्ता-भो अम्हारिसहँ उज्जमु अकियत्थु अपुण्णहँ ।
लइ तुम्हारिसह सिरि एह सव्व कयपुण्णहँ ।।३।।
निसुणेविणु एउ सलक्खणेण
पुच्छिउ कुमरेण वियक्खणेण । को तुहुँ कहिँ होंतु किमत्थु पाउ
किं गहिय वंस कहि भो सहाउ । तं सुणिवि पयासइ सो वरम्मि
हउँ भट्टपुत्तु पाडलिपुरम्म । नामेण सुमइ संपयविहीणु
पडु पंडिउ सव्वकलापवीणु । तं नत्थि जं न किउ अत्थहेउ
आराहिउ निट्ठए मंतु देउ । सेविउ समुदु दीवंतराइँ
पइसरिउ सेलगुज्झंतराइँ । परिसमिउ भमिउ देसंतराइँ
विहियाइँ विविहवेसंतराइँ। रससिद्धि निहालिउ धाउवाउ
अवरु वि अणेयविहु किउ उवाउ । तइवि हु न किं पि फलपत्ति जाय फुडु दुक्कियकम्मो एह छाय ।
घत्ता-हिंडेवि सयल महि एत्थाययएं बहुसीसें ।
वंस निएवि किउ सुंदरु पाएसु मुणीसें ॥४॥
जो सयलहो भूमंडलहो नाहु ए छत्तधयंकुसदंड तासु जइ सुसहिं जलहि चलु गिरिपहाणु इय चितिवि किर महुँ एहि रज्जु छिदेवि लेवि हउँ चलिउ वंस
होसइ अरिनियरमियंकराहु । होसंति करेसहिँ वइरिनासु । रिसि भासिउ तो वि न अप्पमाणु । होसइ कज्जेण अणेण अज्जु । पइँ लइय भावि भो रायहंस ।
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