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________________ १७. ५. ५. ] , कहकोसु [ १८६ अवधारिऊण एयं मणम्मि थिउ सुत्तकंठु एक्कहिँ दिणम्मि । वरपव्वसंधिवड्ढिय महंत दठूण वेणु ते थरहरंत । छिदेप्पिणु लेप्पिणु जाइ जाम करकंडुकुमारे दिलृ ताम। भेसाविउ कड्ढिवि खग्गधेणु उद्दालेवि तिन्नि वि लइय वेणु । पेच्छिवि सुहलक्खणलक्खियंगु दुव्वारवइरिकयमाणभंगु। उवएसिउ जो मुणिणा मणोज्जु भूवलए करेसइ सयलु रज्जु । एसो सो रंजियजणमणाइँ सामन्नहो एइँ न लक्खणाइँ । चितेवि एउ विणएण वुत्तु विप्पें पोमावइदेविपुत्तु । घत्ता-भो अम्हारिसहँ उज्जमु अकियत्थु अपुण्णहँ । लइ तुम्हारिसह सिरि एह सव्व कयपुण्णहँ ।।३।। निसुणेविणु एउ सलक्खणेण पुच्छिउ कुमरेण वियक्खणेण । को तुहुँ कहिँ होंतु किमत्थु पाउ किं गहिय वंस कहि भो सहाउ । तं सुणिवि पयासइ सो वरम्मि हउँ भट्टपुत्तु पाडलिपुरम्म । नामेण सुमइ संपयविहीणु पडु पंडिउ सव्वकलापवीणु । तं नत्थि जं न किउ अत्थहेउ आराहिउ निट्ठए मंतु देउ । सेविउ समुदु दीवंतराइँ पइसरिउ सेलगुज्झंतराइँ । परिसमिउ भमिउ देसंतराइँ विहियाइँ विविहवेसंतराइँ। रससिद्धि निहालिउ धाउवाउ अवरु वि अणेयविहु किउ उवाउ । तइवि हु न किं पि फलपत्ति जाय फुडु दुक्कियकम्मो एह छाय । घत्ता-हिंडेवि सयल महि एत्थाययएं बहुसीसें । वंस निएवि किउ सुंदरु पाएसु मुणीसें ॥४॥ जो सयलहो भूमंडलहो नाहु ए छत्तधयंकुसदंड तासु जइ सुसहिं जलहि चलु गिरिपहाणु इय चितिवि किर महुँ एहि रज्जु छिदेवि लेवि हउँ चलिउ वंस होसइ अरिनियरमियंकराहु । होसंति करेसहिँ वइरिनासु । रिसि भासिउ तो वि न अप्पमाणु । होसइ कज्जेण अणेण अज्जु । पइँ लइय भावि भो रायहंस । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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