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________________ का पहले अर्थ कह कर पश्चात् पावरपूर्वक उन कथाओं को कहता हूं, क्योंकि सन्दर्भ रहित बात कहने से गुणवानों को उसके रसको अनुभूति नही होती।" इस पर से सिद्ध होता है कि धार्मिक कथाओं की परम्परा जैन धर्म में तीर्थकर महावीर के ही काल से प्रारम्भ हुई और वह गुरु-परम्परा से निरन्तर चलती हुई प्रस्तुत ग्रन्थकार के समय तक चली आई। इन कथाओं में से अनेक का उल्लेख सन्दर्भानुसार मुनि शिवकोटि या शिवार्य द्वारा अपनी मूलाराधना अर्थात् भगवती पाराधना में भी किया गया है। उसीको सम्भवतः श्रीचन्द्र ने पंचमकाल में शिवकोटि द्वारा कथित कथाकोष कहां है, क्योंकि ऐसा तो अन्य कोई ग्रन्थ या ग्रन्थोल्लेख नहीं पाया जाता जिससे शिवकोटि द्वारा रचित कथाकोष ग्रन्थ का अस्तित्व सिद्ध हो । प्रस्तुत रचना में श्रीचन्द्र ने अपनी इस प्रतिज्ञा का निर्वाह किया है कि वे अपने कथा सम्बन्धी मूलाराधना की गाथा को उद्धृत कर तथा उसका संस्कृत में अर्थ समझाकर पश्चात् अपना कथानक प्रारम्भ करेंगे। यह बात विरल रूप से तेतालीसवीं सन्धि तक पाई जाती है, किन्तु उससे आगे की दस सन्धियों में कवि ने मूलाराधना की कोई गाथा उद्धृत नहीं की। उक्त प्रकार से मूलराधना की जितनी गाथाएँ प्रस्तुत रचना में उद्धृत पायी जाती हैं, उनको सुविधा के लिए यहां एकत्र संकलित कर दिया गया है। अपने ग्रन्थ की रचना में श्रीचन्द्र ने ग्रन्थ को अन्तिम प्रशस्ति के उन्नीसवें श्लोक में एक और महत्व की बात कही है, कि उन्होंने भव्यों की प्रार्थना पर एक पूर्वाचार्य द्वारा विरचित कृति का ज्ञान प्राप्त करके भले प्रकार इस अति सुन्दर कथाकोष की रचना की। इससे प्रतीत होता है कि उनके सन्मुख कथाकोष सम्बन्धी एक रचना विशिष्ट रूप से प्रस्तुत थी, जिसे उन्होंने अपनी रचना का आधार बनाया। यह रचना अन्य कोई नहीं, वही बृहत्कथाकोष है जिसकी रचना संस्कृत भाषा में हरियणाचार्य द्वारा विक्रम सवत् ९८९ एवं शक संवत् ८५३, अर्थात् ई० सन् ९३१-३२ में वर्द्धमानपुर में पूर्ण की गयी थी। यह ग्रन्थ डॉ. प्रा० ने० उपाध्ये द्वारा सुसम्यादित होकर प्रकाशित हो चुका है (सिंधी जै० ग्रन्थ० १७, भा० वि० भ० बम्बई १९४३) । इस संस्करण को प्रस्तावना में विद्वान् सम्पादक ने इस संस्कृत कथाकोष का प्रस्तुत अपभ्रंश कथाकोष से विस्तारपूर्वक मिलान किया है, और निष्कर्व निकाला है कि इन दोनों ग्रन्थों में कथाओं का क्रम, विषय तथा नामों व शब्दों का ऐसा साभ्य है जिससे उनका परस्पर सम्बन्ध निर्विवाद सिद्ध होता है । और क्योंकि हरिबेण का रचनाकाल श्रीचन्द्र से लगमग एक सौ चालीस वर्ष पहले सिद्ध होता है, अतः इस बात में सन्देह का कोई कारण नहीं कि श्रीचन्द्र ने अपने अपभ्रंश कथाकोष की रचना हरिबेण कृत संस्कृत कथाकोष को सामने रखकर की है । इस सम्बन्ध में डॉक्टर उपाध्ये ने अपने जो विचार उक्त प्रस्तावना में प्रकट किये हैं वे महत्वपूर्ण हैं । उक्त दोनों ग्रन्थों की कथाओं के साम्य व भेद को प्रस्तुत करने के लिए हम उनको तुलनात्मक सूची यहां दे रहे हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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